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क़ाज़ी अबदुस्सत्तार की कहानियाँ
रज़्ज़ो बाजी
पहला प्यार भुलाए नहीं भूलता है। एक अर्से बाद रज़्ज़ो बाजी का ख़त आता है। वही रज़्ज़ो जो पंद्रह साल पहले हमारे इलाके़ के मशहूर मोहर्रम देखने आई थीं। उसी मोहर्रम में हीरो की उनसे मुलाकात हुई थी और वहीं वह एहसास उभरा था जिसने रज़्ज़ो बाजी को फिर कभी किसी का न होने दिया। अपनी माँ के जीते जी रज़्ज़ो बाजी ने कोई रिश्ता क़बूल नहीं किया। फिर जब माँ मर गई और बाप पर फ़ालिज गिर गया तो रज़्ज़ो बाजी ने एक रिश्ता क़बूल कर लिया। लेकिन शादी से कुछ अर्से पहले ही उन पर जिन्नात आने लगे और शादी टूट गई। इसके बाद रज़्ज़ो बाजी ने कभी किसी से रिश्ते की बात न की। सिर्फ़ इसलिए कि वह मोहर्रम में हुए अपने उस पहले प्यार को भूला नहीं सकी थीं।
नया क़ानून
कहानी लखनऊ के उस समय की दास्तान बयान करती है, जब अंग्रेज़ सरकार ने एक नया क़ानून बना कर उसे अपने साम्राज्य में शामिल कर लिया था। नगर के नवाब और वज़ीर-ए-आज़म कोशिश करने के बाद भी अंग्रेज़ सरकार को इस क़दम को उठाने से रोक नहीं सके थे।
पीतल का घंटा
एक ज़माने में क़ाज़ी इमाम हुसैन अवध के ताल्लुकादार थे, उनकी बहुत ठाट-बाट थी.। हर कोई उनसे मिलने आता था। अपनी शादी के वक़्त जब हीरो पहली बार उनसे मिला था तो उन्होंने उसे अपने यहाँ आने की दावत दी थी। अब एक अर्सा बाद उनके गाँव के पास से गुज़रते वक़्त बस ख़राब हो गई तो वह क़ाज़ी इमाम हुसैन के यहाँ चला गया। वहाँ उसने देखा कि क़ाज़ी साहब का तो हुलिया ही बदला हुआ है। कहाँ वह ठाट-बाट और कहाँ अब पैवंद लगे कपड़े पहने हैं। क़ाज़ी साहब के यहाँ इस समय इतनी गु़रबत है कि उन्हें मेहमान की मेहमान-नवाज़ी करने के लिए अपना मोहर लगा पीतल का घंटा तक बेच देना पड़ता है।
नवमी
यह कहानी एक ऐसी लड़की कि गिर्द घूमती है, जिसे अपने अंकल से ही मोहब्बत हो जाती है। उस मोहब्बत की शुरुआत तब होती है जब वह अपने अंकल के यहाँ एक शादी में जाती है और वहाँ उनके व्यक्तित्व की अलग-अलग विशेषताओं को देखती है। मगर वह खुलकर उनसे अपनी मोहब्बत का इज़हार नहीं कर पाती है।
नाज़ो
कहानी एक ऐसे शख़्स की है, जो सहंची न मिलने के कारण अपनी बीवी नाज़ो को तलाक़ दे देता है। हालाँकि उसने उससे शादी ही इसलिए की थी वह बहुत खू़बसूरत थी और उसे लगता था कि उसी के पास सहंची है। मगर उसके जाने के बाद जब उसने पुराने संदूक़ को खुलवाकर देखा तो सहंची उसी में से बरामद हुई।
मालकिन
उस हवेली की पूरे इलाके में बड़ी ठाट थी। हर कोई उसके आगे सिर झुका कर चलता था। लेकिन विभाजन ने सब कुछ बदल दिया था और फिर उसके बाद 1950 के सैलाब ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी। उसके बाद हवेली को लेकर हुई मुक़दमेबाज़ी ने भी मालकिन को किसी क़ाबिल न छोड़ा। मालकिन का पूरा ख़ानदान पाकिस्तान चला गया था। वहाँ से उनके एक चचा-ज़ाद भाई ने उन्हें बुलवा भी भेजा था लेकिन मालकिन ने जाने से मना कर दिया। वह अपना सारा काम चौधरी गुलाब से करा लिया करती थीं। बदलते वक़्त के साथ ऐसा समय भी आया कि हवेली की बची-खुची शान-ओ-शौकत भी जाती रही और वह किसी खंडहर में तब्दील हो गई। नौबत यहाँ तक आ गई कि मालकिन ने गुज़ारा करने के लिए कुर्ते सीने का काम शुरू कर दिया। इस काम में चौधरी गुलाब उनकी मदद करता है। लेकिन इस मदद को लोगों ने अपने ही तरह से लिया और दोनों को बदनाम करने लगे।
आँखें
यह मुग़लिया सल्तनत के बादशाह जहाँगीर के इर्द-गिर्द घूमती कहानी है। मुग़लिया सल्तनत, उसकी राजनीति, बादशाहों की महफ़िल और उन महफ़िलों में मिलने आने वालों का ताँता। उन्हें मिलने आने वालों के ज़रिए जहाँगीर एक ऐसी लड़की से मिलते हैं जिसकी आँखों को वह कभी भूल नहीं पाते। साइमा बेगम की आँखें। वो आँखें ऐसी हैं कि देखने वाले के दिमाग़ में पैवस्त हो जाती हैं और उसके दिमाग़ पर हर वक़्त उन्हीं का तसव्वुर छाया रहता है।
मज्जू भय्या
कहानी एक ऐसे शख़्स की दास्तान बयान करती है जिसका बाप पंडित आनंद सहाय ताल्लुक़दार का नौकर था। इकलौता होने पर भी बाप उसे रो‘अब-दाब में रखता था, बाप के मरते ही उसके पर निकल आए और वह पहलवानी के दंगल में कूद पड़ा। पहलवान के दंगल से निकला तो गाँव की सियासत में रम गया और यहाँ उसने ऐसे-ऐसे कारनामे अंजाम दिए कि अपनी एक अलग जागीर बना ली। मगर इस दौरान उससे मोहब्बत और नफ़रत करने वाले बहुत से औरत-मर्द हो गए, जिन्हें वह मौक़ा मिलते ही एक-एक कर अपने रास्ते से हटाता चला गया।
दीवाली
तीज-त्योहार पर अपने प्यारों को देखने का हर किसी का सपना होता है। मेकवा सहूकार के यहाँ काम करता है। वह कड़ी मेहनत करता है और हर काम को वक़्त पर पूरा कर देता है। दिवाली पर वह घर की साफ़-सफ़ाई में लगा हुआ है और इसी बीच उसे दीवार पर लगी लक्ष्मी जी की तस्वीर दिखती है। उस तस्वीर को देखकर उसे अपनी मंगेतर लक्ष्मी की याद आती है। वह सारा दिन उसके ख़्यालों में खोया रहता है। शाम को प्रसाद लेने के बाद वह मेहता जी की खु़शामद करके चार घंटे की छुट्टी माँग लेता है और साइकिल पर सवार होकर अपनी मंगेतर के गाँव की ओर दौड़ लगा देता है। लेकिन वहाँ जाकर उसे जो पता चलता है उससे उसके पैरों तले की ज़मीन ही खिसक जाती है।
लाला इमाम बख़्श
मोहर्रम में माँगी गई दुआ के सिले में पैदा हुए देवी प्रसाद बख़्श ने अपने बेटे का नाम लाला इमाम बख़्श रख दिया था। इमाम बख़्श देवी प्रसाद का इकलौता बेटा था, इसलिए उन्होंने उसे कभी कुछ नहीं कहा। उसके मन में जो आता वह करता फिरता। देवी प्रसाद की मौत के बाद उसने अपना सिक्का जमाना शुरू कर दिया। फिर गाँव वालों ने सलाह कर के उन्हें ज़मींदारी छोड़ने के एवज़ में प्रधानी सौंप दी। हालात ने तब करवट बदली जब गाँव के नज़दीक एक क़त्ल हो गया और उसके जुर्म में लाला इमाम बख़्श को गिरफ्तार कर लिया गया।
ठाकुरद्वारा
कहानी एक ऐसे शख़्स के गिर्द घूमती है जो दानापुर में रहता था और होली के दिन ठाकुरद्वारा में औरतों का नाच कराता था। मगर जब ज़मींदारी ख़त्म हुई थी तो उसके साथ ही बहुत सी चीज़ें भी ख़त्म हो गईं। उन्हीं खत्म होने वाली चीजों में एक ठाकुरद्वारा में होने वाला नाच भी था।
रूपा
यह कहानी एक ऐसे शख़्स की है जिसका बाप रजब अवध की गढ़ी की सियासत में काफ़ी फल-फूल गया था। उसने अपने बेटे हुसैन को भी अपनी तरह पहलवान बनाया था। मगर जवानी में उसे अपने बाप के दुश्मन मुनव्वर की बेटी रूपा से मोहब्बत हो जाती है। उस मोहब्बत में रजब की जान चली जाती है, पर हुसैन रूपा को अपने घर लाने में कामयाब रहता है। वह रूपा को ब्याह तो लाया था पर कभी उसके दिल में जगह नहीं बना सका था, क्योंकि रूपा को उसका दुबला-पतला शरीर पसंद नहीं था। फिर अचानक ऐसा कुछ हुआ जिसकी वजह से वह उससे मोहब्बत किए बिना रह न सकी।
मॉडल टाउन
हसद की आग में जलते एक नौजवानी की कहानी, वह जानता है कि जिस लड़की से वह शादी कर रहा है वह किसी और से प्यार करती है। फिर भी वह नौकरी के लालच में आकर उससे शादी कर लेता है और मॉडल टाउन में आकर बस जाता है। एक रोज़ बस में सफ़र करते हुए उसे वही शख़्स मिल जाता है जिससे उसकी बीवी मोहब्बत करती है। वह शख़्स उस नौजवान को शाम को रीगल सिनेमा पर मिलने के लिए कहता है। नौजवान शाम को वहाँ पहुँच जाता है लेकिन वह शख्स नहीं आता है। फ़िल्म देखकर वह वापस घर आता है और बद-हवासी में तरह-तरह के ख़्याल उसके दिमाग़ में तारी हो जाते हैं। वह मॉडल टाउन जाना चाहता है, लेकिन अपनी उस अजीब-ओ-ग़रीब कैफ़ियत में वह क्या वाक़ई मॉडल टाउन जा पाता है...? यह तो कहानी पढ़कर ही पता चल पाता है।
गर्म लहू में ग़ल्ताँ
यह एक ऐसे शख़्स की कहानी है, जो एक हत्या का गवाह था। उसने शादी में जब पहली बार उस औरत को देखा था तो वह उसे पहचान नहीं सका था। मगर ध्यान से देखने पर उसे याद आया कि वह औरत एक बार उनके घर आई थी। अकेले में उसने बड़े भाई से बात की थी और फिर रात के अँधेरे में बड़े भाई ने एक बैग में रखी लाश को ठिकाने लगाने के लिए कुछ लोगों को दिया था। उसने यह सब कुछ अपनी आँखों से देखा था, मगर वह चाह कर भी कुछ नहीं कर सका था।
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