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राही फ़िदाई

1949 | बैंगलोर, भारत

राही फ़िदाई

ग़ज़ल 12

अशआर 11

हर एक शाख़ थी लर्ज़ां फ़ज़ा में चीख़-ओ-पुकार

हवा के हाथ में इक आब-दार ख़ंजर था

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लज़्ज़त का ज़हर वक़्त-ए-सहर छोड़ कर कोई

शब के तमाम रिश्ते फ़रामोश कर गया

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किसी को साया किसी को गुल-ओ-समर देगा

हरा-भरा है दरख़्त-ए-रिवाज रहने दो

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हवस-गिरफ़्ता हवाओ निगाहें नीची रखो

शजर खड़े हैं सड़क के क़रीन बे-पर्दा

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सब्ज़ा-ज़ारों की शराफ़त से खेलो क़तअन

तुम हवा हो तो ख़लाओं से लिपट कर देखो

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