रईस अमरोहवी
ग़ज़ल 42
नज़्म 5
अशआर 17
दिल से मत सरसरी गुज़र कि 'रईस'
ये ज़मीं आसमाँ से आती है
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सदियों तक एहतिमाम-ए-शब-ए-हिज्र में रहे
सदियों से इंतिज़ार-ए-सहर कर रहे हैं हम
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हम अपने हाल-ए-परेशाँ पे बारहा रोए
और उस के ब'अद हँसी हम को बारहा आई
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हम अपनी ज़िंदगी तो बसर कर चुके 'रईस'
ये किस की ज़ीस्त है जो बसर कर रहे हैं हम
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