- पुस्तक सूची 180323
-
-
पुस्तकें विषयानुसार
-
बाल-साहित्य1867
औषधि773 आंदोलन280 नॉवेल / उपन्यास4033 -
पुस्तकें विषयानुसार
- बैत-बाज़ी11
- अनुक्रमणिका / सूची5
- अशआर62
- दीवान1389
- दोहा65
- महा-काव्य98
- व्याख्या171
- गीत86
- ग़ज़ल926
- हाइकु12
- हम्द35
- हास्य-व्यंग37
- संकलन1486
- कह-मुकरनी6
- कुल्लियात636
- माहिया18
- काव्य संग्रह4446
- मर्सिया358
- मसनवी766
- मुसद्दस51
- नात490
- नज़्म1121
- अन्य64
- पहेली16
- क़सीदा174
- क़व्वाली19
- क़ित'अ54
- रुबाई273
- मुख़म्मस18
- रेख़्ती12
- शेष-रचनाएं27
- सलाम32
- सेहरा9
- शहर आशोब, हज्व, ज़टल नामा13
- तारीख-गोई26
- अनुवाद73
- वासोख़्त24
राजिंदर सिंह बेदी का परिचय
उपनाम : 'बेदी'
मूल नाम : राजेन्द्र सिंह बेदी
जन्म : 01 Sep 1915 | सियालकोट, पंजाब
निधन : 11 Nov 1984 | मुंबई, महाराष्ट्र
LCCN :n81131621
पुरस्कार : साहित्य अकादमी अवार्ड(1965)
संवेदनशील और तहदार अफ़साना निगार
अफ़साना और शे’र में कोई फ़र्क़ नहीं है। है, तो सिर्फ़ इतना कि शे’र छोटी बहर में होता है और
अफ़साना एक ऐसी लंबी बहर में जो अफ़साने के शुरू से लेकर आख़िर तक चलती है। नौसिखिया इस बात को नहीं जानता और अफ़साने को बहैसियत फ़न शे’र से ज़्यादा सहल समझता है।”राजिंदर सिंह बेदी
राजिंदर सिंह बेदी आधुनिक उर्दू फ़िक्शन का वो नाम हैं जिस पर उर्दू अफ़साना बजा तौर पर नाज़ करता है। वो निश्चित ही अद्वितीय, एकल और लाजवाब हैं। आधुनिक उर्दू अफ़साने के तीन अन्य स्तंभों, सआदत हसन मंटो, इस्मत चुग़ताई और कृश्न चंदर के मुक़ाबले में उनका लेखन ज़्यादा गंभीर, अधिक तहदार और अधिक अर्थपूर्ण है और इस हक़ीक़त के बावजूद कि साहित्य में विक्ट्री स्टैंड नहीं होते, अलग अलग आलोचक अपने उत्साह और क्षमता के अनुसार इन चारों को विभिन्न पाएदानों पर खड़ा करते रहते हैं, बेदी को पहले पायदान पर खड़ा करने वालों की संख्या कम नहीं।
बेदी के अफ़साने मानव व्यक्तित्व के सबसे सूक्ष्म प्रतिबिंब हैं। उनके आईनाख़ाने में इंसान अपने सच्चे रूप में नज़र आता है और बेदी उसका चित्रण इस तरह करते हैं कि इसके व्यक्तित्व के सूक्ष्म कोने ही सामने नहीं आ जाते बल्कि व्यक्ति और समाज के पेचीदा रिश्ते और इंसान की शख़्सियत के रहस्यमयी ताने-बाने भी रोशन हो जाते हैं और इस तरह ज़िंदगी की अधिक सार्थक, अधिक स्पष्ट और अधिक कल्पनाशील तस्वीर सामने आती है जिसमें एहसास का गुदाज़ भी शामिल होता है, और विचार की जिज्ञासा और अनुभव भी। उनकी कला में रूपकों और पौराणिक अवधारणाओं का बुनियादी महत्व है और वो इस तरह कि पौराणिक ढांचा उनके अफ़सानों के प्लाट की अर्थगत वातावरण के साथ स्वयं निर्मित होता चला जाता है। बेदी अपने पात्रों के मनोविज्ञान के द्वारा ज़िंदगी के मूल रहस्यों तक पहुंचने की कोशिश करते हैं। उनकी रचनात्मक प्रक्रिया मूर्त रूप से कल्पना तक, घटना से असत्यता की तरफ़, विशेष से सामान्य की तरफ़ और हक़ीक़त से रहस्यवाद की तरफ़ होता है।
बेदी अपनी कहानियों पर बहुत मेहनत करते हैं। एक बार मंटो ने उनसे कहा था, “तुम सोचते बहुत हो, लिखने से पहले सोचते हो, लिखने के दौरान सोचते हो और लिखने के बाद सोचते हो।” इसके जवाब में बेदी ने कहा था, “सिख कुछ और हों या न हों, कारीगर अच्छे होते हैं।” अपनी रचनात्मक प्रक्रिया के बारे में बेदी कहते हैं, “मैं कल्पना की कला में विश्वास करता हूं। जब कोई वाक़िया निगाह में आता है तो मैं उसे विस्तारपूर्वक बयान करने की कोशिश नहीं करता बल्कि वास्तविकता और कल्पना के संयोजन से जो चीज़ पैदा होती है उसे लेखन में लाने की कोशिश करता हूं। मेरे ख़्याल में वास्तविकता को व्यक्त करने के लिए एक रूमानी दृष्टिकोण की ज़रूरत है बल्कि अवलोकन के बाद, प्रस्तुत करने के अंदाज़ के बारे में सोचना स्वयं में किसी हद तक रूमानी तर्ज़-ए-अमल है।
बेदी एक सितंबर 1915 को लाहौर में पैदा हुए। उनके पिता हीरा सिंह लाहौर के सदर बाज़ार डाकखाना के पोस्ट मास्टर थे। बेदी की आरंभिक शिक्षा लाहौर छावनी के स्कूल में हुई जहां से उन्होंने चौथी जमात पास की, इसके बाद उनका दाख़िला एस.बी.बी.एस ख़ालसा स्कूल में करा दिया गया। उन्होंने वहां से 1931 में फ़र्स्ट डिवीज़न में मैट्रिक का इम्तिहान पास किया। मैट्रिक के बाद वो डी.ए.वी कॉलेज लाहौर गए लेकिन इंटरमीडिएट तक ही पहुंचे थे कि माता का, जो टी बी की रोगिणी थीं, देहांत हो गया। माँ के देहांत के बाद उनके पिता ने नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया और 1933 में बेदी को कॉलेज से उठा कर डाकखाने में भर्ती करा दिया। उनकी तनख़्वाह 46 रुपए मासिक थी। 1934 में सिर्फ़ 19 साल की उम्र में उनकी शादी कर दी गई। ख़ालसा कॉलेज के ज़माने से ही उन्होंने लिखना शुरू कर दिया था। डाकख़ना की नौकरी के ज़माने में वो रेडियो के लिए भी लिखते थे।1946 में उनकी कहानियों का पहला संग्रह “दाना-ओ-दाम” प्रकाशित हुआ और उनकी अहमियत को साहित्यिक मंडलियों में स्वीकार किया जाने लगा और वो लाहौर से प्रकाशित होने वाले महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिका “अदब-ए-लतीफ़” के अवैतनिक संपादक बन गए। 1943 में उन्होंने डाकखाने की नौकरी से इस्तिफ़ा दे दिया। दो साल इधर उधर धक्के खाने के बाद उन्होंने लाहौर रेडियो के लिए ड्रामे लिखने शुरू किए, फिर 1943 से 1944 तक लाहौर रेडियो स्टेशन पर स्क्रिप्ट राईटर की नौकरी की जहां उनकी तनख़्वाह 150 रुपए थी। फिर जब युद्ध प्रसारण के लिए उनको सूबा सरहद के रेडियो पर भेजा गया तो उनकी तनख़्वाह 500 रुपए हो गई। बेदी ने वहाँ एक साल काम किया फिर नौकरी छोड़कर लाहौर वापस आ गए और लाहौर की फ़िल्म कंपनी महेश्वरी में 600 रुपए मासिक की नौकरी कर ली। यह नौकरी भी रास नहीं आई और उन्होंने 1946 में अपना संगम पब्लिशिंग हाऊस स्थापित किया। 1947 में देश का विभाजन हो गया तो बेदी को लाहौर छोड़ना पड़ा। वो कुछ दिन रोपड़ और शिमला में रहे। इसी दौरान उनकी मुलाक़ात शेख़ मुहम्मद अबदुल्लाह से हुई जिन्होंने उनको जम्मू रेडियो स्टेशन का डायरेक्टर नियुक्त कर दिया। उनकी बख़्शी ग़ुलाम मुहम्मद से नहीं निभी और वो बंबई आ गए। बंबई में उनकी मुलाक़ात फेमस पिक्चर कंपनी के प्रोडयूसर डी.डी कश्यप से हुई जो उनसे परोक्ष रूप से परिचित थे। कश्यप ने उनको 1000 रुपए मासिक पर मुलाज़िम रख लिया। बेदी ने अनुबंध में शर्त रखी थी कि वो बाहर भी काम करेंगे। कश्यप के लिए बेदी ने दो फिल्में “बड़ी बहन” और “आराम” लिखीं और बाहर “दाग़” लिखी। “दाग़” बहुत चली जिसके बाद बेदी तरक़्क़ी की मंज़िलें तय करने लगे। उनकी कहानियों का दूसरा संग्रह “ग्रहन” 1942 में ही प्रकाशित हो चुका था।1949 में उन्होंने अपना तीसरा संग्रह “कोख जली” प्रकाशित कराया।
बेदी डाकखाना के दिनों में बड़े विनम्र और दब्बू थे लेकिन वक़्त के साथ उनके अंदर अपनी ज़ात और अपनी कला के प्रसंग से बला का आत्मविश्वास पैदा हो गया लेकिन दोनों ही ज़मानों में वो बेहद संवेदनशील और कोमल स्वभाव के रहे। वे अपनी फ़िल्म “दस्तक” की हीरोइन रिहाना सुलतान और एक दूसरी फ़िल्म की अदाकारा सुमन पर बुरी तरह मोहित थे। रिहाना सुलतान ने एक इंटरव्यू में बेदी की भावुकता के प्रसंग से कहा, “बेदी साहब ही मैंने ऐसे शख़्स देखे जो हमेशा ख़ुश रहते हैं। मैंने उनके साथ दो फिल्मों में काम किया। बहुत अच्छा शॉट हुआ तो “कट” करना भूल जाते हैं। अस्सिटेंट कहेगा, “बेदी साहब शॉट हो गया “कट, कट।” और वो आँसू पोंछ रहे हैं, रोने के बीच कह रहे हैं, “बहुत अच्छा शॉट था।” और बुरी तरह रो रहे हैं।
बेदी स्टोरी राईटर, डायलाग राईटर, स्क्रीन राईटर डायरेक्टर या प्रोड्यूसर के रूप में जिन फिल्मों का हिस्सा रहे उनमें बड़ी ‘बहन’, ‘दाग़’, ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’, ‘देव दास’, ‘गर्म कोट’, ‘मिलाप’, ‘बसंत बहार’, ‘मुसाफ़िर’, ‘मधूमती’, ‘मेम दीदी’, ‘आस का पंछी’, ‘बंबई का बाबू’, ‘अनुराधा’, ‘रंगोली’, ‘मेरे सनम’, ‘बहारों के सपने’, ‘अनूपमा’, ‘मेरे हमदम मेरे दोस्त’, ‘सत्य काम’, ‘दस्तक’, ‘ग्रहन’, ‘अभिमान’, ‘फागुन’, ‘नवाब साहब’, ‘मुट्ठी भर चावल’, ‘आंखन देखी’ और ‘एक चादर मैली सी’ शामिल हैं। 1956 में उन्हें ‘गर्म कोट’ के लिए बेहतरीन कहानी का फ़िल्म फ़ेयर ऐवार्ड मिला। दूसरा फ़िल्म फ़ेयर ऐवार्ड उनको ‘मधूमती’ के बेहतरीन संवादों के लिए और फिर 1971 में ‘सत्य काम’ के संवाद के लिए दिया गया।1906 में नीना गुप्ता ने उनकी कहानी “लाजवंती” पर टेली फ़िल्म बनाई।
फ़िल्मी सरगर्मीयों के साथ साथ बेदी का रचनात्मक सफ़र जारी रहा। ‘दाना-ओ-दाम’, ‘बेजान चीज़ें’ ‘कोख जली’ के बाद उनकी जो किताबें प्रकाशित हुईं, उनमें ‘अपने दुख मुझे दे दो’, ‘हाथ हमारे क़लम हुए’, ‘मुक़द्दस झूट’, ‘मेहमान’, ‘मुक्ती बोध’ और ‘एक चादर मैली सी’ शामिल हैं। राजिंदर सिंह बेदी ने ज़िंदगी में अपनी संवेदी निगाहों से बहुत कुछ देखा। पंजाब के ख़ुशहाल कस्बों की ज़िंदगी और बदहाल लोगों की विपदा, अर्ध शिक्षित लोगों की रस्में, रीतियां, स्पर्धा और निबाह की तदबीरें, पुरानी दुनिया में नए विचारों का समावेश, नई पीढ़ी और इर्द-गिर्द के बंधनों का संयोजन... इन सब में बेदी ने दहश्त के बजाए नर्मियों को चुन लिया। नर्मी अपने संपूर्ण और संजीदा भावार्थ के साथ उनके ब्रह्मांड के अध्ययन का केंद्र बिंदु है। भयानक में से भलाई को और नागवारी में से गवारा को तलाश करना उनके कलाकार का मूल उद्देश्य है। बेदर्दी से सीखना, कुरेदना और दर्द-मंदी से उसे काग़ज़ पर स्थानान्तरित करना उनका एक बड़ा कारनामा है जो अद्वितीय भी है और महान भी। 1965 में उनको ‘एक चादर मैली सी’ के लिए साहित्य अकादेमी ऐवार्ड दिया गया। इस के बाद 1978 में उनको ड्रामा के लिए ग़ालिब ऐवार्ड से नवाज़ा गया। उनकी याद में पंजाब सरकार ने उर्दू अदब का राजिंदर सिंह बेदी ऐवार्ड शुरू किया है।
बीवी से निरंतर अनबन के कारण बेदी की ज़िंदगी तल्ख़ थी और इसकी ख़ास वजह उनकी आशिक़ मिज़ाजी थी। उनका बेटा नरेंद्र बेदी भी फ़िल्म प्रोडयूसर और डायरेक्टर था लेकिन 1982 मैं उसकी मौत हो गई। बेदी की बीवी उससे पहले चल बसी थीं। बेदी की ज़िंदगी के आख़िरी दिन बड़ी कसमपुर्सी और बेबसी में गुज़रे। 1982 में उन पर फ़ालिज का हमला हुआ और फिर कैंसर हो गया।1984 में उनका देहांत हो गया।सहायक लिंक : | https://en.wikipedia.org/wiki/Rajinder_Singh_Bedi | http://www.imdb.com/name/nm0066074/
संबंधित टैग
प्राधिकरण नियंत्रण :लाइब्रेरी ऑफ कॉंग्रेस नियंत्रण संख्या : n81131621
join rekhta family!
Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi
Get Tickets
-
बाल-साहित्य1867
-