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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

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रंगीन सआदत यार ख़ाँ

1756 - 1835 | लखनऊ, भारत

उर्दू शायरी की विधा ' रेख़्ती ' के लिए प्रसिद्ध जिसमें शायर औरतों की भाषा में बोलता है

उर्दू शायरी की विधा ' रेख़्ती ' के लिए प्रसिद्ध जिसमें शायर औरतों की भाषा में बोलता है

रंगीन सआदत यार ख़ाँ के शेर

बादल आए हैं घिर गुलाल के लाल

कुछ किसी का नहीं किसी को ख़याल

ज़ुल्म की टहनी कभी फलती नहीं

नाव काग़ज़ की कहीं चलती नहीं

झूटा कभी झूटा होवे

झूटे के आगे सच्चा रोवे

पा-बोस-ए-यार की हमें हसरत है नसीम

आहिस्ता आइओ तू हमारे मज़ार पर

वो आए तो तू ही चल 'रंगीं'

इस में क्या तेरी शान जाती है

ता हश्र रहे ये दाग़ दिल का

या-रब बुझे चराग़ दिल का

था जहाँ मय-ख़ाना बरपा उस जगह मस्जिद बनी

टूट कर मस्जिद को फिर देखा तो बुत-ख़ाने हुए

मनअ करते हो अबस यारो आज

उस के घर जाएँगे पर जाएँगे हम

है ये दुनिया जा-ए-इबरत ख़ाक से इंसान की

बन गए कितने सुबू कितने ही पैमाने हुए

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