रौनक़ नईम के शेर
इन दरख़्तों से भी नाता जोड़िए
जिन दरख़्तों का कोई साया नहीं
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गली गली में तकल्लुफ़ की धूल होती है
अब अपना शहर भी लगता है अजनबी की तरह
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हालात-ए-ख़ूँ-आशाम से ग़ाफ़िल नहीं लेकिन
ऐ ज़ुल्म तिरे हाथ पे बैअ'त नहीं करते
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सैकड़ों पुल बने फ़ासले भी मिटे
आदमी आदमी से जुदा ही रहा
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बेहतर है अब दूर रहो तुम टेसू के इन फूलों से
शोख़ बहुत है इन की सुर्ख़ी आईना दिखलाए तो
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