साग़र ख़य्यामी के शेर
मुद्दत हुई है बिछड़े हुए अपने-आप से
देखा जो आज तुम को तो हम याद आ गए
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जान जाने को है और रक़्स में परवाना है
कितना रंगीन मोहब्बत तिरा अफ़्साना है
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आम तेरी ये ख़ुश-नसीबी है
वर्ना लंगड़ों पे कौन मरता है
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कितने चेहरे लगे हैं चेहरों पर
क्या हक़ीक़त है और सियासत क्या
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उस वक़्त मुझ को दावत-ए-जाम-ओ-सुबू मिली
जिस वक़्त मैं गुनाह के क़ाबिल नहीं रहा
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कौन कहता है बुलंदी पे नहीं हूँ 'सागर'
मेरी मेराज-ए-मोहब्बत मिरी रुस्वाई है
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