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सग़ीर मलाल के शेर

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ज़माने भर से उलझते हैं जिस की जानिब से

अकेले-पन में उसे हम भी क्या नहीं कहते

है एक उम्र से ख़्वाहिश कि दूर जा के कहीं

मैं ख़ुद को अजनबी लोगों के दरमियाँ देखूँ

ज़रूरत उस की हमें है मगर ये ध्यान रहे

कहाँ वो ग़ैर-ज़रूरी कहाँ ज़रूरी है

तअज्जुब उन को है क्यूँ मेरी ख़ुद-कलामी पर

हर आदमी का कोई राज़-दाँ ज़रूरी है

उन से बचना कि बिछाते हैं पनाहें पहले

फिर यही लोग कहीं का नहीं रहने देते

रौशनी है किसी के होने से

वर्ना बुनियाद तो अंधेरा था

घर के बारे में यही जान सका हूँ अब तक

जब भी लौटो कोई दरवाज़ा खुला होता है

बस इस ख़याल से देखा तमाम लोगों को

जो आज ऐसे हैं कैसे वो कल रहे होंगे

तेरे बारे में अगर ख़ामोश हूँ मैं आज तक

फिर तिरे हक़ में किसी का फ़ैसला कैसे हुआ

मेरे बारे में जो सुना तू ने

मेरी बातों का एक हिस्सा है

तमाम वहम गुमाँ है तो हम भी धोका हैं

इसी ख़याल से दुनिया को मैं ने प्यार किया

समझता हूँ मैं अगर सब अलामतें उस की

तो फिर वो मेरी तरह से ही सोचता होगा

शिकस्ता-पाई से होती हैं बस्तियाँ आबाद

जो अब क़बीला हुआ पहले क़ाफ़िला होगा

सब सवालों के जवाब एक से हो सकते हैं

हो तो सकते हैं मगर ऐसा कहाँ होता है

एक लम्हे में ज़माना हुआ तख़्लीक़ 'मलाल'

वही लम्हा है यहाँ और ज़माना है वही

एक रहने से यहाँ वो मावरा कैसे हुआ

सब से पहला आदमी ख़ुद से जुदा कैसे हुआ

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