सहर अंसारी
ग़ज़ल 28
नज़्म 11
अशआर 16
कैसी कैसी महफ़िलें सूनी हुईं
फिर भी दुनिया किस क़दर आबाद है
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जाने क्यूँ रंग-ए-बग़ावत नहीं छुपने पाता
हम तो ख़ामोश भी हैं सर भी झुकाए हुए हैं
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मौत के बाद ज़ीस्त की बहस में मुब्तला थे लोग
हम तो 'सहर' गुज़र गए तोहमत-ए-ज़िंदगी उठाए
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सदा अपनी रविश अहल-ए-ज़माना याद रखते हैं
हक़ीक़त भूल जाते हैं फ़साना याद रखते हैं
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