सहबा लखनवी के शेर
कितने दीप बुझते हैं कितने जलते हैं
अज़्म-ए-ज़िंदगी ले कर फिर भी लोग चलते हैं
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कारवाँ के चलने से कारवाँ के रुकने तक
मंज़िलें नहीं यारो रास्ते बदलते हैं
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मौज मौज तूफ़ाँ है मौज मौज साहिल है
कितने डूब जाते हैं कितने बच निकलते हैं
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