साहिर होशियारपुरी
ग़ज़ल 28
नज़्म 3
अशआर 13
कौन कहता है मोहब्बत की ज़बाँ होती है
ये हक़ीक़त तो निगाहों से बयाँ होती है
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वो जिस को हम ने अपनाया बहुत है उसी ने दिल को तड़पाया बहुत है हमारे क़त्ल की साज़िश के दरपय हमारा नेक हम-साया बहुत है दिल-ए-दर्द-आश्ना शौक़-ए-शहादत मोहब्बत में ये सरमाया बहुत है अजब शय है चमन-ज़ार-ए-तमन्ना समर कोई नहीं साया बहुत है ख़ता उस की नहीं दिल को हमीं ने तमन्नाओं में उलझाया बहुत है ख़ुदा महफ़ूज़ रखे आसमाँ को ज़मीं को इस ने झुलसाया बहुत है तिरी याद आई है तो आज हम को दिल-ए-गुम-गश्ता याद आया बहुत है ब-नाम-ए-हज़रत-ए-नासेह भी इक जाम कि उस ने वा'ज़ फ़रमाया बहुत है न क्यूँ ठुकराएँ हम दुनिया को 'साहिर' हमें भी उस ने ठुकराया बहुत है
ग़म का सहरा न मिला दर्द का दरिया न मिला हम ने मरना भी जो चाहा तो वसीला न मिला मुद्दतों बा'द जो आईने में झाँका हम ने इतने चेहरे थे वहाँ अपना ही चेहरा न मिला क़त्ल कर के वो ग़नीमों को जो वापस आए अपने ही घर में उन्हें कोई शनासा न मिला हम भी जा निकले थे सूरज के नगर में इक दिन वो अंधेरा था वहाँ अपना भी साया न मिला तिश्ना-लब यूँ तो ज़माने में कभी हम न रहे प्यास जो दिल की बुझा देता वो दरिया न मिला मिल गए हम को सनम-ख़ानों में कितने ही ख़ुदा ढूँडने पर कोई बंदा ही ख़ुदा का न मिला आप के शहर में पेड़ों का नहीं कोई शुमार दो घड़ी रुकने को लेकिन कहीं साया न मिला सब्ज़ पत्तों से मिला हम को बहारों का सुराग़ शाख़-ए-नाज़ुक पे मगर कोई शगूफ़ा न मिला मुस्तहक़ हम तिरी रहमत के न होने पाए तेरी दुनिया में कोई 'उज़्र ख़ता का न मिला ख़ुद-नुमाई के भी इस दौर में हम को 'साहिर' कोई क़ातिल न मिला कोई मसीहा न मिला