सलमान अख़्तर के शेर
इक वही शख़्स मुझ को याद रहा
जिस को समझा था भूल जाऊँगा
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कैसे हो क्या है हाल मत पूछो
मुझ से मुश्किल सवाल मत पूछो
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झूटी उम्मीद की उँगली को पकड़ना छोड़ो
दर्द से बात करो दर्द से लड़ना छोड़ो
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वो भी हमारे नाम से बेगाने हो गए
हम को भी सच है उन से मोहब्बत नहीं रही
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हम जो पहले कहीं मिले होते
और ही अपने सिलसिले होते
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ऐसा नहीं कि उन से मोहब्बत न हो मगर
पहले सा जोश पहले सी शिद्दत नहीं रही
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ज़िंदगी हम से तो इस दर्जा तग़ाफ़ुल न बरत
हम भी शामिल थे तिरे चाहने वालों में कभी
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ये तमन्ना है कि अब और तमन्ना न करें
शेर कहते रहें चुप चाप तक़ाज़ा न करें
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देखे जो मेरी नेकी को शक की निगाह से
वो आदमी भी तो मिरे अंदर है क्या करूँ
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कुछ तो मैं भी डरा डरा सा था
और कुछ रास्ता नया सा था
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निकले थे दोनों भेस बदल के तो क्या अजब
मैं ढूँडता ख़ुदा को फिरा और ख़ुदा मुझे
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चाँद सूरज की तरह तुम भी हो क़ुदरत का खेल
जैसे हो वैसे रहो बनना बिगड़ना छोड़ो
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जब ये माना कि दिल में डर है बहुत
तब कहीं जा के दिल से डर निकला
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वो एक ख़्वाब जो फिर लौट कर नहीं आया
वो इक ख़याल जिसे मैं भुला नहीं सकता
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कुछ तो अपने लिए भी रखना है
ज़ख़्म औरों को क्यूँ दिखाएँ सब
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ये अलग बात कि वो मुझ से ख़फ़ा रहता है
मैं इक इंसान हूँ और मुझ में ख़ुदा रहता है
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कोई शय एक सी नहीं रहती
उम्र ढलती है ग़म बदलते हैं
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ज़िंदगी इस क़दर कठिन क्यूँ है
आदमी की भला ख़ता क्या है
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जिस से सारे चराग़ जलते थे
वो चराग़ आज कुछ बुझा सा था
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गुफ़्तुगू तीर सी लगी दिल में
अब है शायद इलाज सन्नाटा
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अपनी आदत कि सब से सब कह दें
शहर का है मिज़ाज सन्नाटा
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झाँकते रात के गरेबाँ से
हम ने सौ आफ़्ताब देखे हैं
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ख़ाली बरामदों ने मुझे देख कर कहा
क्या बात है उदास से कुछ लग रहे हो तुम
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हज़ार चाहें मगर छूट ही नहीं सकती
बड़ी अजीब है ये मय-कशी की आदत भी
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बुत समझते थे जिस को सारे लोग
वो मिरे वास्ते ख़ुदा सा था
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मुझे ख़बर न थी इस घर में कितने कमरे हैं
मैं कैसे ले के वहाँ सारी दास्ताँ जाता
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क्या नहीं जानता मुझे कोई
क्या नहीं शहर में वो घर बाक़ी
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जीना अज़ाब क्यूँ है ये क्या हो गया मुझे
किस शख़्स की लगी है भला बद-दुआ मुझे
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जो बात छुपाई है सब से वो उन से छुपानी मुश्किल है
बाहर की कहानी आसाँ है अन्दर की कहानी मुश्किल है
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