साक़िब लखनवी का परिचय
उपनाम : 'साक़िब'
मूल नाम : मिर्ज़ा ज़ाकिर हुसैन क़ज़लबाश
जन्म : 02 Jan 1869 | आगरा, उत्तर प्रदेश
निधन : 24 Nov 1946 | लखनऊ, उत्तर प्रदेश
ज़माना बड़े शौक़ से सुन रहा था
हमीं सो गए दास्ताँ कहते कहते
शेक्सपियर के ड्रामे “जुलियस सीज़र” में एक स्थिति ऐसी आती है जहाँ सीज़र के ख़िलाफ़ साज़िशें होने लगती हैं और बात यहाँ तक बढ़ती है कि एक दिन लोग उसके क़त्ल पर आमादा होजाते हैं और उसको घेर लेते हैं, उनमें उसका दोस्त ब्रूटस भी ख़ंजर के साथ सामने आता है जिससे ये उम्मीद थी कि वो उन साज़िश करने वालों का साथ न देगा। ब्रूटस को देखकर सीज़र के मुँह से निकलता है, “अरे, ब्रूटस तुम भी?”
ऐसी घटनाएँ मानव समाज में बराबर देखने में आती हैं कि जिन लोगों के भरोसे या विश्वास की कल्पना के साथ इंसान जीता है और दोस्तों और रिश्तेदारों से ये उम्मीद रखता है कि वो भले बुरे वक़्त में उसके काम आएँगे तो ये भी देखता है कि भले वक़्त में तो लोग साथ होते हैं जब किसी नुक़्सान का अंदेशा नहीं होता लेकिन बुरे वक़्त में सब दूर दूर भाग जाते हैं कि कहीं वो लोग भी उसके साथ मुसीबत में न घिर जाएं। शायद वो इसलिए डरते हैं कि ऐसा न हो कि उस पीड़ित का दुर्भाग्य हम पर भी पड़ जाये और मदद करने के सिलसिले में हमारा कमाया हुआ रुपया ख़र्च हो जाए, इसलिए वो बहुत ही निर्दयता से यह तबाही का दृश्य देखते हैं और चुप रहते हैं और हमदर्दी के दो शब्द भी नहीं बोलते। ऐसी ही भावनाओं से प्रभावित हो कर ये कहना पड़ता है कि “अरे ब्रूटस तुम भी।” जनाब साक़िब लखनवी ने बेहतरीन संकेत और रूपकों का इस्तेमाल कर के इसी विषय पर एक निहायत ख़ूबसूरत शे’र कहा है जो कहावत की तरह इस्तेमाल होता है,
बाग़बाँ ने आग दी जब आशियाने को मिरे
जिन पे तकिया था वही पत्ते हवा देने लगे
दिल की भावनाओं को व्यक्त करना साक़िब लखनवी की ग़ज़लों का आधार है। उनका पूरा नाम मीरज़ा ज़ाकिर हुसैन और तारीख़ी नाम मीरज़ा इंतज़ार मेह्दी(1869 ई.) था। उनका गृह नगर तबरिस्तान था। उनकी वंशावली हाजी अली क़ज़िलबाश माझ से मिलता है जो अली क़ुली ख़ां के नाम से भी मशहूर हुए और यही उनके उत्तराधिकारी थे। शाह तहमास्प सफ़वी के ज़माने में हाजी साहब दरबार-ए-शाही के ख़ास अमीरों में शुमार किए जाते थे। पंद्रहवीं सदी में साक़िब के पूर्वजों को ईरान में आर्थिक संघर्ष से दो-चार होना पड़ा और आख़िर उन्होंने ईरान की सुकूनत तर्क की और हिंदुस्तान का रुख़ किया। व्यापार का माल व सामान लेकर आए और यहाँ अकबराबाद (आगरा) में क़ियाम किया। आगरा उस वक़्त हिंदुस्तान का राजधानी था और सारे विद्वान और ज्ञान व कला के साहिबान मौजूद थे। साक़िब के ख़ानदान की प्रतिष्ठा हिंदुस्तान में भी बाक़ी रही और व्यक्तिगत योग्यता और बौद्धिक उत्कृष्टता के कारण मुग़ल दरबार के रईसों में उनके बुज़ुर्ग शामिल हो गए और विभिन्न गौरवशाली पदों पर रहे। कुछ व्यक्तियों को उनके उत्कृष्ट कार्य के लिए इनामात और ख़िलअत से भी सम्मानित हुए।
हिंदुस्तान में बर्तानवी प्रभाव के बाद भी उनके बुज़ुर्गों का सरकार में रसूख़ बाक़ी रहा और साक़िब के वालिद मौलवी आग़ा मुहम्मद अस्करी क़ज़िलबाश एक ज़माने तक अंग्रेज़ी सरकार के मुलाज़िम रहे। उनके नाम के साथ क़ज़िलबाश इसलिए लगा है कि ईरान के शाह इस्माईल सफ़वी के ज़माने में उसने अपने सिपाहियों की वर्दी में सुर्ख़-रंग की टोपियां प्रचलित की थीं। ‘क़ज़िल’ मायने सुर्ख़ और 'बाश’ मायने सर के हैं। उन सिपाहियों के ख़ानदान के लोग भी क़ज़िलबाश कहलाए।
2 जनवरी 1869 ई.को सुबह के वक़्त साक़िब पैदा हुए। ये अभी छः माह के थे कि कुछ कारणों से उनके वालिद ने आगरा छोड़ दिया और सपरिवार लखनऊ चले गए। लखनऊ में भी फ़राग़त नसीब न हुई और वो इलाहाबाद चले गए। यहाँ 15-16 बरस रहने के बाद नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया और रियासत भोपाल में 1897 ई.में वकालत का पेशा इख़्तियार किया और बड़ी नामवरी हासिल की। उनके बेटे साक़िब और परिवार के लोग लखनऊ में थे इसलिए आख़िर उम्र में लखनऊ वापस आगए और 26 अगस्त 1901 ई. को इंतिक़ाल किया। पिता की देहांत के बाद परिवार की परवरिश की सारी ज़िम्मेदारी साक़िब ही पर आगई। उस वक़्त उनकी उम्र 32 बरस की थी। ख़ुद उनकी भी शादी 1891ई.में हो चुकी थी।
साक़िब की आरंभिक शिक्षा पुराने ढंग से हुई थी। अरबी, फ़ारसी और उर्दू में विद्वता प्राप्त की थी और वालिद के आग्रह पर आगरा के सेंट जॉन्स कॉलेज से अंग्रेज़ी में एंट्रेंस पास किया था। वहीं उनकी मुलाक़ात सफ़ी लखनवी और ज़की मुरादाबादी से हुई। ये दोनों हज़रात काव्य मर्मग्य, लेखक और निबंधकार थे। साक़िब को उनकी संगत जो मिली तो उनकी शायरी पर उन्मुख तबीयत के ख़ूब जौहर खुले। आगरे में शिक्षा पूरी कर के जब वो वापस लखनऊ आए तो उनकी मुलाक़ात राजा महमूदाबाद (ज़िला सीतापुर,उ.प्र.) मुहम्मद अमीर हसन ख़ां बहादुर से हुई और उन्होंने उनकी क़दरदानी करते हुए रियासत के सारे साहित्यिक मामले साक़िब के सपुर्द कर दिए और उनके नाम 50 रुपये मासिक का प्रलेख जारी कर दिया लेकिन ख़ुशहाली नसीब न हुई। एक मद्रासी व्यापारी के साझे में 1898 ई. में लखनऊ में कुछ व्यापार शुरू किया लेकिन उसमें बहुत नुक़सान हुआ। आख़िर परेशान हो कर 1906 ई.में कलकत्ता चले गए। वहाँ ईरान के सफ़ीर से मुलाक़ात हुई तो उन्होंने साक़िब की क़ाबिलीयत देखकर अपना विशेष सचिव नियुक्त कर लिया। अवध की शाम का ये आदी शायर ज़ुल्फ़ ए बंगाल में क़ैद न हो सका। इत्तफ़ाक़ से दो बरस बाद 1908 ई.में राजा महमूदाबाद ने उनको फिर तलब कर लिया और ये वापस लखनऊ आगए। कलकत्ता की आरामदेह ज़िंदगी को छोड़कर उसी प्रलेख में उम्र गुज़ार दी।
साक़िब एक ऐसे कश्मकश के दौर में पैदा हुए थे जो सियासी, सांस्कृतिक और सामाजिक क्रांतियों का दौर था। पुराने मूल्य टूट रहे थे और अंग्रेज़ों के प्रभुत्व के कारण नई ज़िंदगी और नए विचार मुल्क में फैल रहे थे। दिल्ली, लखनऊ के साहित्यिक केंद्र बिखर चुके थे। अहल-ए-ज़बान में जिसको जहाँ पनाह मिली वहीं का हो रहा। महमूदाबाद की छोटी सी रियासत और राजा साहब की करम फ़रमाई को ही साक़िब ने ग़नीमत जाना।
साक़िब को शायद एक पुरसुकून “घर” का विचार हमेशा सताता रहा चुनांचे उन्होंने बहुत से अशआर नशेमन और नशेमन की बर्बादी पर कहे हैं,
अपने भी मुझसे ख़ुश न रहे बाग़-ए-दहर में
बिगड़ा किया मुझी से नशेमन बना हुआ
साक़िब एक निहायत शिष्ट, मर्यादाशील, सादगी-पसंद और नेकर स्वभाव व्यक्तित्व के मालिक थे। प्रशंसा व सराहना से दूर भागते थे। लिबास भी बहुत सादा पहना करते थे। कभी कभी अपने विचारों में गुम खोए खोए रहते थे। हुक़्क़ा का शौक़ था और हुक़्क़ा न मिलता तो सिगरेट पर संतोष करते थे। कभी-कभार पान भी खा लेते थे, मुलाक़ातियों से ज़्यादा बेतकल्लुफ़ न होते थे बल्कि निहायत गंभीरता और संजीदगी से बात करते थे। उनके बेतकल्लुफ़ दोस्तों की तादाद बहुत कम थी जिनमें हंसी मज़ाक़ कर लेते थे।
साक़िब पतन के दौर के शायर हैं। चूँकि दर्दो ग़म और अभाव का एहसास पतनशील समाज में ज़्यादा होता है इसलिए उनके कलाम में ज़िंदगी के बहुत सी कड़वी सच्चाइयां मिलेंगी। उनकी शायरी पुराने दौर से टूट कर आधुनिक दौर से जा मिली है। लखनऊ में उस वक़्त नासिख़ के इंतिक़ाल को पच्चास बरस हो चुके थे। लेकिन उनकी शायरी और तग़ज़्ज़ुल का ग़ैर जज़्बाती रंग लोगों के ज़ेहन पर छाया हुआ था इसलिए साक़िब के कुछ जगह ऐसे विषयों के अशआर मिलते हैं जो संभवतः स्थानीय लोगों को ख़ुश करने के लिए कहे गए हैं वर्ना उनका असली रंग वही सोज़-ओ-गुदाज़ है जो उनके दिल में बसा हुआ था और कलाम के रूप में प्रकट हुआ। साक़िब के एहसास की शिद्दत, कल्पना शक्ति और भाषा की कोमलता की वजह से उनकी कुछ ग़ज़लें अदब में एक प्रमुख हैसियत रखती हैं। लखनऊ में ग़ज़ल को एक नई दिशा देने वालों में साक़िब हरावल दस्ता में नज़र आते हैं, मुलाहिज़ा हो,
जल्वा-ए-हुस्न इक इशारे में बहुत कुछ कह गया
मैं नहीं समझा मगर हाँ दिल तड़प कर रह गया
हादिसों के ज़लज़लों से जाम-ए-दिल छलका किया
एक चुल्लू ख़ून ही क्या बहते बहते बह गया
कौन सी आब-ओ-हवा में जा के ढूंडूं दिल को मैं
या धुआँ बन कर उड़ा या अश्क बन कर बह गया
साक़िब की निम्नलिखित ग़ज़ल बहुत मशहूर हुई है जिसको गायिका रऊफ़ ने साज़-ओ-आवाज़ से सजा कर पेश किया है और जो ग़ज़ल के क़द्रदानों के बीच बहुत लोकप्रिय है,
कहाँ तक जफ़ा हुस्न वालों की सहते
जवानी जो रहती तो फिर हम न रहते
उनकी ग़ज़लों के कुछ बेहतरीन अशआर ये हैं,
कहने को मुश्त पर की असीरी तो थी मगर
ख़ामोश हो गया है चमन बोलता हुआ
दिल के क़िस्से कहाँ नहीं होते
हाँ वो सबसे बयाँ नहीं होते
बहुत सी उम्र मिटा कर जिसे बनाया था
मकाँ वो जल गया थोड़ी सी रोशनी के लिए
80 बरस की उम्र पाने के बाद साक़िब, जिनको ज़माना बड़े शौक़ से सुन रहा था अपनी दास्तान-ए-ग़म शे’र की ज़बान में कहते कहते 1949 ई. में चिर निद्रा में सो गए। दारुल तस्नीफ़-ओ-तालीफ़ महमूदाबाद ने उनका दीवान “तजलाए शहाब-ए-साक़िब” 1936 ई. में प्रकाशित किया। दीवान के नाम के आदाद1355 हैं जो प्रकाशन का हिज्री वर्ष है।
उनके दीवान में एक कैमरे से खिंची हुई तस्वीर दी है जो उनके दाहिने रुख़ से ली गई है जो संभवतः दीवान के प्रकाशन से पहले की है। साक़िब की एक आख़िर उम्र की तस्वीर डाक्टर हिमायत अली साहब के कुतुबख़ाने से मिली जिसको मुनासिब बदलाव के बाद रंगों से सजा कर पेश किया जा रहा है। संभवतः उनके बाएं कान की शक्ल से कुछ ऐब था जो दीवान में दी गई तस्वीर में छुपाया गया है और दूसरी तस्वीर में स्पष्ट था। इसकी दुरुस्ती कर दी गई है और अब बक़ौल शायर,
तस्वीर मेरी उम्र-ए-गुज़िश्ता की देख जाओ
तुर्बत पे इक चराग़ है वो भी बुझा हुआ