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शाहिद अहमद देहलवी के रेखाचित्र
मंटो
दुबला डील, सूखे सूखे हाथ पांव, म्याना क़द, चम्पई रंग, बेक़रार आँखों पर सुनहरे फ्रे़म की ऐनक, क्रीम कलर का सूट, सुर्ख़ चहचहाती टाई, एक धान पान सा नौजवान मुझसे मिलने आया। ये कोई चौबीस-पच्चीस साल उधर का ज़िक्र है। बड़ा बेतकल्लुफ़, तेज़-तर्रार, चर्ब ज़बान।
मिर्ज़ा अज़ीम बेग़ चुग़ताई
अल्लाह बख़्शे मिर्ज़ा अज़ीम बेग चुग़ताई भी अजब ख़ूबियों के आदमी थे। सदा के मरजीवड़े। पैदा हुए तो इतने नहीफ़-ओ-कमज़ोर कि रुई के पहलू पर रखे गए। बड़े हुए तो रोगी मरजीन। अल्लाह का दिया घर में सब कुछ मौजूद था। दधियाल भी जानदार थी और नन्हियाल भी सांवटी। उनके वालिद
मोलवी नज़ीर अहमद देहलवी
मैंने मौलवी नज़ीर अहमद साहब को पांच बरस की उम्र में आख़िरी बार देखा। इससे पहले देखा तो ज़रूर होगा मगर मुझे बिल्कुल याद नहीं। मुझे इतना याद है कि हम तीन भाई अब्बा के साथ हैदराबाद दकन से दिल्ली आए थे तो खारी बावली के मकान में गए थे। ड्यूढ़ी के आगे सेहन में
जिगर मुरादाबादी
बा’ज़ चेहरे बड़े धोके बाज़ होते हैं। काला घुटा हुआ रंग, उसमें सफ़ेद सफ़ेद कौड़ियों की तरह चमकती हुई आँखें, सर पर उलझे हुए पट्ठे, गोल चेहरा, चेहरा के रक़्बे के मुक़ाबले में नाक किसी क़दर छोटी और मुँह किसी क़दर बड़ा, कसरत-ए-पान ख़ोरी के बाइस मुंह उगालदान, दाँत
मीराजी
दिल्ली और लाहौर हमारे लिए घर आंगन था। जब जी चाहा मुँह उठाया और चल पड़े। खाने दाने से फ़ारिग़ हो रात को फ्रंटियर मेल में सवार हुए और सो गए। आँख खुली तो मालूम हुआ कि गाड़ी लाहौर पर खड़ी है। साल में कई कई फेरे लाहौर के हो जाते थे। लाहौर अदीबों की मंडी था। सर
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