शाहिद मीर के शेर
और कुछ भी मुझे दरकार नहीं है लेकिन
मेरी चादर मिरे पैरों के बराबर कर दे
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पहले तो छीन ली मिरी आँखों की रौशनी
फिर आईने के सामने लाया गया मुझे
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शजर ने लहलहा कर और हवा ने चूम कर मुझ को
तिरी आमद के अफ़्साने सुनाए झूम कर मुझ को
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वही सफ़्फ़ाक हवाओं का सदफ़ बनते हैं
जिन दरख़्तों का निकलता हुआ क़द होता है
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तुझ को देखा नहीं महसूस किया है मैं ने
आ किसी दिन मिरे एहसास को पैकर कर दे
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गँवाए बैठे हैं आँखों की रौशनी 'शाहिद'
जहाँ-पनाह का इंसाफ़ देखने वाले
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ख़ौफ़ से अब यूँ न अपने घर का दरवाज़ा लगा
तेज़ हैं कितनी हवाएँ इस का अंदाज़ा लगा
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बुझती हुई सी एक शबीह ज़ेहन में लिए
मिटती हुई सितारों की सफ़ देखते रहे
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रोने से और लुत्फ़ वफ़ाओं का बढ़ गया
सब ज़ाइक़ा फलों में नए पानियों का है
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