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शाहिद सिद्दीक़ी

1911 - 1962 | हैदराबाद, भारत

शाहिद सिद्दीक़ी

ग़ज़ल 22

अशआर 8

तमाम उम्र तिरा इंतिज़ार कर लेंगे

मगर ये रंज रहेगा कि ज़िंदगी कम है

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एक पल के रुकने से दूर हो गई मंज़िल

सिर्फ़ हम नहीं चलते रास्ते भी चलते हैं

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साथ देंगी ये दम तोड़ती हुई शमएँ

नए चराग़ जलाओ कि रौशनी कम है

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उरूज-ए-माह को इंसाँ समझ गया लेकिन

हनूज़ अज़्मत-ए-इंसाँ से आगही कम है

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क़रीब दूर से आती है आप की आवाज़

कभी बहुत है ग़म-ए-जुस्तुजू कभी कम है

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