शमीम करहानी के शेर
बुझा है दिल तो न समझो कि बुझ गया ग़म भी
कि अब चराग़ के बदले चराग़ की लौ है
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याद-ए-माज़ी ग़म-ए-इमरोज़ उमीद-ए-फ़र्दा
कितने साए मिरे हमराह चला करते हैं
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चुप हूँ तुम्हारा दर्द-ए-मोहब्बत लिए हुए
सब पूछते हैं तुम ने ज़माने से क्या लिया
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लीजिए बुला लिया आप को ख़याल में
अब तो देखिए हमें कोई देखता नहीं
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पीने को इस जहान में कौन सी मय नहीं मगर
इश्क़ जो बाँटता है वो आब-ए-हयात और है
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बे-ख़बर फूल को भी खींच के पत्थर पे न मार
कि दिल-ए-संग में ख़्वाबीदा सनम होता है
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वो दिल भी जलाते हैं रख देते हैं मरहम भी
क्या तुर्फ़ा तबीअत है शोला भी हैं शबनम भी
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