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Sheen Kaaf Nizam's Photo'

शीन काफ़ निज़ाम

1947

महत्वपूर्ण उत्तर-आधुनिक शायर, साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित।

महत्वपूर्ण उत्तर-आधुनिक शायर, साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित।

शीन काफ़ निज़ाम के शेर

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चुभन ये पीठ में कैसी है मुड़ के देख तो ले

कहीं कोई तुझे पीछे से देखता होगा

गली के मोड़ से घर तक अँधेरा क्यूँ है 'निज़ाम'

चराग़ याद का उस ने बुझा दिया होगा

तू अकेला है बंद है कमरा

अब तो चेहरा उतार कर रख दे

मंज़र को किसी तरह बदलने की दुआ दे

दे रात की ठंडक को पिघलने की दुआ दे

दोस्ती इश्क़ और वफ़ादारी

सख़्त जाँ में भी नर्म गोशे हैं

जिन से अँधेरी रातों में जल जाते थे दिए

कितने हसीन लोग थे क्या जाने क्या हुए

याद और याद को भुलाने में

उम्र की फ़स्ल कट गई देखो

कहाँ जाती हैं बारिश की दुआएँ

शजर पर एक भी पत्ता नहीं है

अपनी पहचान भीड़ में खो कर

ख़ुद को कमरों में ढूँडते हैं लोग

कोई दुआ कभी तो हमारी क़ुबूल कर

वर्ना कहेंगे लोग दुआ से असर गया

आरज़ू थी एक दिन तुझ से मिलूँ

मिल गया तो सोचता हूँ क्या करूँ

अपने अफ़्साने की शोहरत उसे मंज़ूर थी

उस ने किरदार बदल कर मिरा क़िस्सा लिख्खा

ज़ुल्म तो बे-ज़बान है लेकिन

ज़ख़्म को तू ज़बान कब देगा

निकले कभी घर से मगर इस के बावजूद

अपनी तमाम उम्र सफ़र में गुज़र गई

बरसों से घूमता है इसी तरह रात दिन

लेकिन ज़मीन मिलती नहीं आसमान को

दरवाज़ा कोई घर से निकलने के लिए दे

बे-ख़ौफ़ कोई रास्ता चलने के लिए दे

आँखें कहीं दिमाग़ कहीं दस्त पा कहीं

रस्तों की भीड़-भाड़ में दुनिया बिखर गई

यादों की रुत के आते ही सब हो गए हरे

हम तो समझ रहे थे सभी ज़ख़्म भर गए

बीच का बढ़ता हुआ हर फ़ासला ले जाएगा

एक तूफ़ाँ आएगा सब कुछ बहा ले जाएगा

ऊँची इमारतें तो बड़ी शानदार हैं

लेकिन यहाँ तो रेन-बसेरे थे क्या हुए

पत्तियाँ हो गईं हरी देखो

ख़ुद से बाहर भी तो कभी देखो

किसी के साथ अब साया नहीं है

कोई भी आदमी पूरा नहीं है

सुन लिया होगा हवाओं में बिखर जाता है

इस लिए बच्चे ने काग़ज़ पे घरौंदा लिख्खा

ख़ामोश तुम थे और मिरे होंट भी थे बंद

फिर इतनी देर कौन था जो बोलता रहा

साहिलों की शफ़ीक़ आँखों में

धूप कपड़े उतार कर चमके

धूल उड़ती है धूप बैठी है

ओस ने आँसुओं का घर छोड़ा

उदासी अकेले में डर जाएगी

घड़ी-दो-घड़ी को ख़ुशी भेज दे

एक आसेब है हर इक घर में

एक ही चेहरा दर-ब-दर चमके

बदलती रुत का नौहा सुन रहा है

नदी सोई है जंगल जागता है

ज़रा सी बात थी तेरा बिछड़ना

ज़रा सी बात से क्या कुछ हुआ है

वहशत तो संग-ओ-ख़िश्त की तरतीब ले गई

अब फ़िक्र ये है दश्त की वुसअत भी ले जाए

ख़ामोश तुम थे और मिरे होंठ भी थे बंद

फिर इतनी देर कौन था जो बोलता रहा

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