सिराज लखनवी
ग़ज़ल 32
नज़्म 2
अशआर 55
आँखों पर अपनी रख कर साहिल की आस्तीं को
हम दिल के डूबने पर आँसू बहा रहे हैं
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ज़र्ब-उल-मसल हैं अब मिरी मुश्किल-पसंदियाँ
सुलझा के हर गिरह को फिर उलझा रहा हूँ मैं
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ये एक लड़ी के सब छिटके हुए मोती हैं
का'बे ही की शाख़ें हैं बिखरे हुए बुत-ख़ाने
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