सुलैमान अरीब
ग़ज़ल 16
नज़्म 14
अशआर 2
एक हम्माम में तब्दील हुई है दुनिया
सब ही नंगे हैं किसे देख के शरमाऊँ मैं
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'अरीब' देखो न इतराओ चंद शेरों पर
ग़ज़ल वो फ़न है कि 'ग़ालिब' को तुम सलाम करो
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पुस्तकें 151
चित्र शायरी 1
कोई दुश्मन कोई हमदम भी नहीं साथ अपने तू नहीं है तो दो-आलम भी नहीं साथ अपने साथ कुछ दूर तिरे हम भी गए थे लेकिन अब कहाँ जाएँ कि ख़ुद हम भी नहीं साथ अपने वो भी इक वक़्त था ख़ुर्शीद-ब-कफ़ फिरते थे ये भी इक वक़्त है शबनम भी नहीं साथ अपने नाख़ुन-ए-वक़्त ने कब ज़ख़्म को दहकाया है ऐसे इक वक़्त कि मरहम भी नहीं साथ अपने सामने कितनी सलीबें हैं पए बे-गुनही आज लख़्त-ए-दिल-ए-मर्यम भी नहीं साथ अपने पी के सोचा कि ख़रीदेंगे ग़म-ए-दुनिया भी तय हुए दाम तो दिरहम भी नहीं साथ अपने