ताहिर फ़राज़
ग़ज़ल 27
नज़्म 1
अशआर 19
इस बुलंदी पे बहुत तन्हा हूँ
काश मैं सब के बराबर होता
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उस ज़ाविए से देखिए आईना-ए-हयात
जिस ज़ाविए से मैं ने लगाया है धूप में
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ख़त्म हो जाएगा जिस दिन भी तुम्हारा इंतिज़ार
घर के दरवाज़े पे दस्तक चीख़ती रह जाएगी
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जब भी टूटा मिरे ख़्वाबों का हसीं ताज-महल
मैं ने घबरा के कही 'मीर' के लहजे में ग़ज़ल
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तारीकियों ने ख़ुद को मिलाया है धूप में
साया जो शाम का नज़र आया है धूप में
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