तालीफ़ हैदर
ग़ज़ल 14
अशआर 13
सफ़र ही बस कार-ए-ज़िंदगी है
अज़ाब क्या है सवाब क्या है
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वो एक लम्हा जिसे तुम ने मुख़्तसर जाना
हम ऐसे लम्हे में इक दास्ताँ बनाते हैं
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ये शहर अपनी इसी हाव-हू से ज़िंदा है
तुम्हारी और मिरी गुफ़्तुगू से ज़िंदा है
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इंकार भी करने का बहाना नहीं मिलता
इक़रार भी करने का मज़ा देख रहे हैं
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ख़ुदा वजूद में है आदमी के होने से
और आदमी का तसलसुल ख़ुदा से क़ाएम है
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