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तौसीफ़ तबस्सुम के शेर

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पाँव में लिपटी हुई है सब के ज़ंजीर-ए-अना

सब मुसाफ़िर हैं यहाँ लेकिन सफ़र में कौन है

शौक़ कहता है कि हर जिस्म को सज्दा कीजे

आँख कहती है कि तू ने अभी देखा क्या है

दिल की बाज़ी हार के रोए हो तो ये भी सुन रक्खो

और अभी तुम प्यार करोगे और अभी पछताओगे

कौन से दुख को पल्ले बाँधें किस ग़म को तहरीर करें

याँ तो दर्द सिवा होता है और भी अर्ज़-ए-हाल के ब'अद

अच्छा है कि सिर्फ़ इश्क़ कीजे

ये उम्र तो यूँ भी राएगाँ है

देखने वाली अगर आँख को पहचान सकें

रंग ख़ुद पर्दा-ए-तस्वीर से बाहर हो जाएँ

क्या ये सच है कि ख़िज़ाँ में भी चमन खिलते हैं

मेरे दामन में लहू है तो महकता क्या है

दुख झेलो तो जी कड़ा ही रखना

दिल है तो हिसाब-ए-दोस्ताँ है

दिल बयाज़-ए-उम्र की औराक़-गर्दानी में है

क्या ख़बर है कौन सा सफ़्हा खुला रह जाएगा

जो भी नरमी है ख़यालों में होने से है

ख़्वाब आँखों से निकल जाएँ तो पत्थर हो जाएँ

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