टेक चंद बहार के शेर
नाज़ बे-जा ओ लुत्फ़ बे-मौक़ा'
दिलबरों की अदा है क्या क्या कुछ
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हमें वाइ'ज़ डराता क्यूँ है दोज़ख़ के अज़ाबों से
मआसी गो हमारे बेश हों कुछ मग़फ़िरत कम है
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वही इक आसमाँ है जिस को हम तुम तार कहते हैं
कभी तस्बीह कहते हैं कभी ज़ुन्नार कहते हैं
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कहते हैं अंदलीब-ए-गिरफ़्तार मुझ को देख
उम्मीद जीवने की नहीं इस बहार में
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नहीं मालूम क्या हिकमत है शैख़ इस आफ़रीनश की
हमें ऐसा ख़राबाती किया तुझ को मुनाजाती
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