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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

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वजाहत अली संदैलवी

1916 - 1996 | सण्डीला, भारत

वजाहत अली संदैलवी

ग़ज़ल 10

अशआर 2

समझे वो हमें उन्हें हम समझ सके

गुज़री है उम्र जैसे किसी अजनबी के साथ

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महसूर ख़ुद हैं अपने सुरों को लिए खड़े

दहशत सी छा गई है सितम की सिपाह में

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उद्धरण 1

जिस तरह हर गली के लिए कम से कम एक कम-तोल पंसारी, एक घर का शेर कुत्ता, एक लड़ाका सास, एक बद-ज़बान बहू, एक‏ नसीहत करने वाले बुज़ुर्ग, एक फ़ज़ीहत पी जाने वाला रिंद और हवाइज-ए-ज़रूरी से फ़ारिग़ होते हुए बहुत से बच्चों का‏ होना लाज़िमी होता है, उसी तरह किसी किसी भेस में एक माहिर-ए-ग़ालिबयात का होना भी लाज़िमी होता है और बग़ैर उसके‏ गिर्द-ओ-पेश का जुग़राफ़िया कुछ अधूरा रह जाता है।

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तंज़-ओ-मज़ाह 1

 

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