वसी शाह के शेर
ज़िंदगी अब के मिरा नाम न शामिल करना
गर ये तय है कि यही खेल दोबारा होगा
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तुम्हारा नाम लिखने की इजाज़त छिन गई जब से
कोई भी लफ़्ज़ लिखता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं
जो तू नहीं है तो ये मुकम्मल न हो सकेंगी
तिरी यही अहमियत है मेरी कहानियों में
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हर इक मुफ़लिस के माथे पर अलम की दास्तानें हैं
कोई चेहरा भी पढ़ता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं
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हर एक मौसम में रौशनी सी बिखेरते हैं
तुम्हारे ग़म के चराग़ मेरी उदासियों में
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पहले तुझे बनाया बना कर मिटा दिया
जितने भी फ़ैसले किए सारे ग़लत किए
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मुझे ख़बर थी कि अब लौट कर न आऊँगा
सो तुझ को याद किया दिल पे वार करते हुए
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न तुम्हें होश रहे और न मुझे होश रहे
इस क़दर टूट के चाहो मुझे पागल कर दो
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कौन कहता है मुलाक़ात मिरी आज की है
तू मिरी रूह के अंदर है कई सदियों से
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जैसे हो उम्र भर का असासा ग़रीब का
कुछ इस तरह से मैं ने सँभाले तुम्हारे ख़त
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गर सुकूँ चाहिए इस लम्हा-ए-मौजूद में भी
आओ इस लम्हा-ए-मौजूद से बाहर निकलें
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मुद्दतों उस की ख़्वाहिश से चलते रहे हाथ आता नहीं
चाह में उस की पैरों में हैं आबले चाँद को क्या ख़बर
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अपने एहसास से छू कर मुझे संदल कर दो
मैं कि सदियों से अधूरा हूँ मुकम्मल कर दो
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मेरी तो पोर पोर में ख़ुश्बू सी बस गई
उस पर तिरा ख़याल है और चाँद-रात है
इस जुदाई में तुम अंदर से बिखर जाओगे
किसी मा'ज़ूर को देखोगे तो याद आऊँगा
हज़ारों मौसमों की हुक्मरानी है मिरे दिल पर
'वसी' मैं जब भी हँसता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं
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