यासमीन हमीद
ग़ज़ल 28
नज़्म 7
अशआर 19
एक दीवार उठाई थी बड़ी उजलत में
वही दीवार गिराने में बहुत देर लगी
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जिस सम्त की हवा है उसी सम्त चल पड़ें
जब कुछ न हो सका तो यही फ़ैसला किया
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मुसलसल एक ही तस्वीर चश्म-ए-तर में रही
चराग़ बुझ भी गया रौशनी सफ़र में रही
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पर्दा आँखों से हटाने में बहुत देर लगी
हमें दुनिया नज़र आने में बहुत देर लगी
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ख़ुशी के दौर तो मेहमाँ थे आते जाते रहे
उदासी थी कि हमेशा हमारे घर में रही
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