यासमीन हमीद के शेर
एक दीवार उठाई थी बड़ी उजलत में
वही दीवार गिराने में बहुत देर लगी
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जिस सम्त की हवा है उसी सम्त चल पड़ें
जब कुछ न हो सका तो यही फ़ैसला किया
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मुसलसल एक ही तस्वीर चश्म-ए-तर में रही
चराग़ बुझ भी गया रौशनी सफ़र में रही
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पर्दा आँखों से हटाने में बहुत देर लगी
हमें दुनिया नज़र आने में बहुत देर लगी
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ख़ुशी के दौर तो मेहमाँ थे आते जाते रहे
उदासी थी कि हमेशा हमारे घर में रही
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हमें ख़बर थी बचाने का उस में यारा नहीं
सो हम भी डूब गए और उसे पुकारा नहीं
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उस इमारत को गिरा दो जो नज़र आती है
मिरे अंदर जो खंडर है उसे तामीर करो
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अपनी निगाह पर भी करूँ ए'तिबार क्या
किस मान पर कहूँ वो मिरा इंतिख़ाब था
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समुंदर हो तो उस में डूब जाना भी रवा है
मगर दरियाओं को तो पार करना चाहिए था
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उस के शिकस्ता वार का भी रख लिया भरम
ये क़र्ज़ हम ने ज़ख़्म की सूरत अदा किया
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ज़रा धीमी हो तो ख़ुशबू भी भली लगती है
आँख को रंग भी सारे नहीं अच्छे लगते
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अगर इतनी मुक़द्दम थी ज़रूरत रौशनी की
तो फिर साए से अपने प्यार करना चाहिए था
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रस्ते से मिरी जंग भी जारी है अभी तक
और पाँव तले ज़ख़्म की वहशत भी वही है
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किसी के नर्म लहजे का क़रीना
मिरी आवाज़ में शामिल रहा है
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जो डुबोएगी न पहुँचाएगी साहिल पे हमें
अब वही मौज समुंदर से उभरने को है
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मैं अब उस हर्फ़ से कतरा रही हूँ
जो मेरी बात का हासिल रहा है
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इतनी बे-रब्त कहानी नहीं अच्छी लगती
और वाज़ेह भी इशारे नहीं अच्छे लगते
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क्यूँ ढूँडने निकले हैं नए ग़म का ख़ज़ीना
जब दिल भी वही दर्द की दौलत भी वही है
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मिरी हर बात पस-मंज़र से क्यूँ मंसूब होती है
मुझे आवाज़ सी आती है क्यूँ उजड़े दयारों से
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