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Yasmeen Hameed's Photo'

यासमीन हमीद

1951 | पाकिस्तान

यासमीन हमीद के शेर

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एक दीवार उठाई थी बड़ी उजलत में

वही दीवार गिराने में बहुत देर लगी

जिस सम्त की हवा है उसी सम्त चल पड़ें

जब कुछ हो सका तो यही फ़ैसला किया

मुसलसल एक ही तस्वीर चश्म-ए-तर में रही

चराग़ बुझ भी गया रौशनी सफ़र में रही

पर्दा आँखों से हटाने में बहुत देर लगी

हमें दुनिया नज़र आने में बहुत देर लगी

ख़ुशी के दौर तो मेहमाँ थे आते जाते रहे

उदासी थी कि हमेशा हमारे घर में रही

हमें ख़बर थी बचाने का उस में यारा नहीं

सो हम भी डूब गए और उसे पुकारा नहीं

उस इमारत को गिरा दो जो नज़र आती है

मिरे अंदर जो खंडर है उसे तामीर करो

अपनी निगाह पर भी करूँ ए'तिबार क्या

किस मान पर कहूँ वो मिरा इंतिख़ाब था

समुंदर हो तो उस में डूब जाना भी रवा है

मगर दरियाओं को तो पार करना चाहिए था

उस के शिकस्ता वार का भी रख लिया भरम

ये क़र्ज़ हम ने ज़ख़्म की सूरत अदा किया

ज़रा धीमी हो तो ख़ुशबू भी भली लगती है

आँख को रंग भी सारे नहीं अच्छे लगते

अगर इतनी मुक़द्दम थी ज़रूरत रौशनी की

तो फिर साए से अपने प्यार करना चाहिए था

रस्ते से मिरी जंग भी जारी है अभी तक

और पाँव तले ज़ख़्म की वहशत भी वही है

किसी के नर्म लहजे का क़रीना

मिरी आवाज़ में शामिल रहा है

जो डुबोएगी पहुँचाएगी साहिल पे हमें

अब वही मौज समुंदर से उभरने को है

मैं अब उस हर्फ़ से कतरा रही हूँ

जो मेरी बात का हासिल रहा है

इतनी बे-रब्त कहानी नहीं अच्छी लगती

और वाज़ेह भी इशारे नहीं अच्छे लगते

क्यूँ ढूँडने निकले हैं नए ग़म का ख़ज़ीना

जब दिल भी वही दर्द की दौलत भी वही है

मिरी हर बात पस-मंज़र से क्यूँ मंसूब होती है

मुझे आवाज़ सी आती है क्यूँ उजड़े दयारों से

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