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यूसूफ़ नाज़िम के हास्य-व्यंग्य
मुशायरों में हूटिंग के फ़वाइद
मुशायरे तो बहुत होते हैं लेकिन हर मुशायरा कामयाब नहीं होता और सिर्फ़ कामयाबी भी काफ़ी नहीं होती। मुशायरा अच्छे नंबरों से कामयाब होना चाहिए। ऐसी ही कामयाबी से मुशायरों का मुस्तक़बिल रोशन होता है। मुशायरों की कामयाबी का इन्हिसार अब हूटिंग पर है। हूटिंग
धुआँ ही धुआँ
जब से सिगरेट की डिबिया पर और उसके अंदर की हर सिगरेट के सिरे पर ये लिखा जाने लगा कि “सिगरेट सेहत के लिए मुज़िर है” उस वक़्त से सिगरेट की तिजारत सबसे ज़्यादा मुनाफ़ा बख़्श तिजारत हो गई है और सिगरेट की क़ीमत में जितना इज़ाफ़ा होता जा रहा है सिगरेटें उतनी ही
फ़ैशन
दुनिया की यूं तो सभी चीज़ें बदलती रहती हैं क्योंकि दुनिया का इंतज़ाम इंसानों के हाथ में है और हम इंसान इस बात के क़ाइल नहीं कि दुनिया उसी ढब पर चलती रहे जिस ढब पर सूरज, चाँद, सितारे और हवा जैसी चीज़ें चलती आरही हैं। सूरज वही अपनी क़दीम रफ़्तार पर क़ायम
हम भी शौहर हैं
आदमी को बिगड़ते देर नहीं लगती। अच्छा भला आदमी देखते देखते शौहर बन जाता है। ये सब क़िस्मत के खेल होते हैं और इस मुआमले में सबकी क़िस्मत तक़रीबन यकसाँ होती है। शौहर की लकीर सब के हाथ में होती है और हाथ की लकीरों में यही एक लकीर होती है जिससे सब फ़क़ीर
नौकरी की तलाश में
दुनिया में देखा जाये तो काम ही काम पड़ा हुआ है और इतनी कसीर तादाद में पड़ा हुआ है कि अगर दुनिया की मौजूदा आबादी में मज़ीद उतनी ही आबादी का इज़ाफ़ा, आईन-ए-फ़ित्रत और कानून-ए-क़ुदरत की मदद से हो जाये तब भी कार-ए-दुनिया ख़त्म होने में न आए। दुनिया इसीलिए अब
ईद का चाँद और मबादियात-ए-ईद
यूँ तो हर महीने नया चाँद निकला ही करता है लेकिन उन चाँदों में वो बात नहीं होती जो ईद के चाँद में हुआ करती है। ईद का चाँद निज़ाम-ए-शम्सी में चीफ़ गेस्ट की हैसियत का चाँद हुआ करता है। ईद का चाँद बड़ी मेहनत से तैयार किया जाता है। ये अपनी नाज़ुकी और बारीकी
रूमूज़-ए-शिकम परवरी
एक अच्छी तोंद जिसकी देख-भाल भी मक़बूल तरीक़े पर की गई हो, उम्दा सेहत की निशानी है। ये अगर क़ुदरत से नसीब होता है तो क्या कहने वर्ना आदमी ख़ुद भी तवज्जो करे तो कुछ बईद नहीं है कि वो एक मुनासिब तोंद का मालिक न बन सके, बस थोड़ी सी मेहनत दरकार है। बॉडी बिल्डिंग
क्रिकेट सीज़न
हाल हाल तक यानी कोई दो-चार सौ साल पहले तक दुनिया में सिर्फ़ तीन मौसम इस्तेमाल किए जाते थे यानी सरमा, गर्मी और बारिश। और देखा जाये तो ये तीन मौसम हमारी ज़रूरियात के लिए काफ़ी से ज़्यादा थे लेकिन कुछ मुल्कों में वहां की हुकूमतों ने अवाम की सहूलत की ख़ातिर
मुर्ग़-ओ-माही
आदमी का पेट, आदमी के जिस्म का सबसे ताक़तवर हिस्सा है। आदमी का दिल-व-दिमाग़ उसकी गोयाई और समाअ'त और उसका ज़मीर सब पेट की रइय्यत हैं। दुनिया के आधे से ज़्यादा जराएम की बुनियाद यही पेट है। फ़लसफ़ा और मंतिक़ जैसे उ'लूम के इ'लावा अदब और शायरी भी दर्द-ए- शिकम ही
गृहस्त शास्त्र
पेश-लफ़्ज़, शादी कर लेना एक निहायत ही अदना बल्कि हक़ीर काम है जिसे दुनिया का हर शख़्स ख़्वाह, वो कितना ही गया गुज़रा क्यों न हो बआसानी अंजाम दे सकता है। शादी करना चूँकि एक मज़हबी और शरई फे़अल है इसलिए शादी के लिए इल्मी क़ाबिलीयत, ज़ेहनी इस्तिदाद, वजाहत,
इंतिसाब
अदब में बहुत सी चीज़ें ऐसी हैं जिनकी नौइयत गै़र-क़ानूनी न सही, मुश्तबहा ज़रूर है। इन्हीं में से एक इंतिसाब है। इंतिसाब न तो कोई सिन्फ़-ए-अदब है न अदब की कोई शाख़(शाख़शाना ज़रूर है)उर्दू में इंतिसाब को आए हुए ज़्यादा अ'र्सा नहीं गुज़रा। ये दौर-ए-मुग़्लिया के
नए साल की आमद पर
हर नया साल अपने वक़्त का पाबंद होता है और उस मेहमान की तरह होता है जो बिल्कुल ठीक वक़्त पर मुअ'य्यना दिनों के लिए आता है और ख़ामोशी से चला जाता है। उसके आने और जाने को निज़ाम-ए-शमसी भी नहीं रोक सकता। नए साल और मौसम में यही फ़र्क़ होता है। हमने हिसाब किया
नम्बर सही होना चाहिए
शादी को आदमी का इख़्तियारी फे़अल समझा जाता है हालाँकि ये इख़्तियारी से ज़्यादा इज़तिरारी अमल होता है। उसे फे़अल कहना एक लिहाज़ से ज़्यादती ही है। ये एक हरकत है जो चंद मख़सूस लोगों में आहिस्ता-आहिस्ता आदत की शक्ल इख़्तियार करलेती है और मुश्किल ही से छूटती
आईने में
दुनिया में कोई ऐसा ख़ुशनसीब मुल्क नहीं है जहां अदीब पैदा न होते हों। बहुत से मुल्क ऐसे होते हैं जहां अदीबों को फ़र्श वग़ैरा पर बैठने नहीं दिया जाता। उन्हें वहां के लोग हमेशा सर आँखों पर बिठाए रखते हैं। उन अदीबों को भी लोगों के सरों पर बैठे रहने की इतनी
शादी ख़ाना-आबादी
कहा जाता है कि हक़ीक़ी ख़ुशी का अंदाज़ा शादी के बाद ही होता है लेकिन अब कुछ नहीं कहा जा सकता जो चीज़ हाथ से निकल गई, निकल गई। शादी न कर के पछताने में नुक़्सान ये है कि आदमी तन्हा पछताता है। शादी करके पछताने में फ़ायदा ये है कि इसमें एक रफ़ीक़-ए-कार साथ होता
ज़रा मुस्कुराइये
चाहे वो जलसा हो या मुशायरा, क़व्वाली की महफ़िल हो या कोई सरकारी तक़रीब, खेल का मैदान हो या सियासत का ऐवान, ऐसी तमाम जगहों पर दावत और टिकट के बग़ैर दाख़िल हो जाने की आसान तरकीब ये है कि गले में एक नाकारा कैमरा लटका लिया जाये। कैमरा लटका रहे तो गर्दन भी
शेअर, शायर और मुशायरा
शायरों की क़िस्में गिनाना कोई अच्छी बात नहीं है। अच्छी बात हो या न हो काम आसान भी नहीं है क्योंकि शायर तो तारों की तरह होते हैं, लातादाद, जिन्हें आज तक कोई गिन नहीं सका। माहीरीन-ए-फ़लकियात हमारे यहां और हमारे मुल्क के अलावा दूसरे मुल्कों में भी जो हमारी
दास्ताँ टिकटों की
टिकट बीसियों क़िस्म के होते हैं और हर शख़्स को अपनी रोज़मर्रा ज़िंदगी में किसी न किसी टिकट से ज़रूर वास्ता पड़ता है। उन टिक्टों की शक्ल सूरत, क़द-ओ-क़ामत और जसामत ये सारी चीज़ें अलग अलग नमूने की होती हैं। उनमें बस एक ही चीज़ मुश्तर्क होती है वो ये कि ये सब
पाँच बेचारे
ऊदू ग़ज़ल में कोई आठ किरदार होते हैं। ये सब मौक़े-मौक़े से स्टेज पर नुमूदार होते हैं। इनमें से तीन किरदार मर्कज़ी, मुक़व्वी और मुफ़ीद कहलाए जा सकते हैं। ये तीनों ग़ज़ल को जिस्म-व-जान बख्शते हैं।(जांबख़शी नहीं करते)अपनी इफ़ादियत और अपने सिफ़ात के लिहाज़ से इनमें
वुजूद-ए-ज़न से है
कहा जाता है हमारी दुनिया में जितना भी रंग-ओ-रोग़न है वो सिर्फ़ औरत के वुजूद की बिना पर है। हमारा भी यही ख़्याल है, मर्दों की ये हैसियत नहीं कि वो तस्वीर-ए-काएनात में अपनी तरफ़ से कोई रंग भर सकें। ज़िंदगी-भर ख़ुद उनका रंग उड़ा उड़ा सा रहता है तो वो ग़रीब
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