ज़फ़र सहबाई के शेर
जो पढ़ा है उसे जीना ही नहीं है मुमकिन
ज़िंदगी को मैं किताबों से अलग रखता हूँ
झूट भी सच की तरह बोलना आता है उसे
कोई लुक्नत भी कहीं पर नहीं आने देता
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दिलों के बीच न दीवार है न सरहद है
दिखाई देते हैं सब फ़ासले नज़र के मुझे
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ख़ुदा-ए-अम्न जो कहता है ख़ुद को
ज़मीं पर ख़ुद ही मक़्तल लिख रहा है
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टैग : अम्न
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जब अधूरे चाँद की परछाईं पानी पर पड़ी
रौशनी इक ना-मुकम्मल सी कहानी पर पड़ी
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शिकायतों की अदा भी बड़ी निराली है
वो जब भी मिलता है झुक कर सलाम करता है
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ये अमल रेत को पानी नहीं बनने देता
प्यास को अपनी सराबों से अलग रखता हूँ
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