ज़िया जालंधरी के शेर
उन्हें अपने गुदाज़-ए-दिल से अंदाज़ा था औरों का
जब इंसानों के दिल देखे तो इंसानों के दिल टूटे
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तू कोई सूखा हुआ पत्ता नहीं है कि जिसे
जिस तरफ़ मौज-ए-हवा चाहे उड़ा कर ले जाए
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'ज़िया' वो ज़िंदगी क्या ज़िंदगी है
जिसे ख़ुद मौत भी ठुकरा गई हो
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वक़्त बे-मेहर है इस फ़ुर्सत-ए-कमयाब में तुम
मेरी आँखों में रहो ख़्वाब-ए-मुजस्सम की तरह
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इतना सोचा तुझे कि दुनिया को
हम ने तेरी निगाह से देखा
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वो शाख़ बने-सँवरे वो शाख़ फले-फूले
जिस शाख़ पे धूप आए जिस शाख़ को नम पहुँचे
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अब इस का चारा ही क्या कि अपनी तलब ही ला-इंतिहा थी वर्ना
वो आँख जब भी उठी है दामान-ए-दर्द फूलों से भर गई है
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बुरा न मान 'ज़िया' उस की साफ़-गोई का
जो दर्द-मंद भी है और बे-अदब भी नहीं
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मुश्किलें दिल में नई शमएँ जला देती हैं
ग़म से बुझ जाना तो दरवेशों का दस्तूर नहीं
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हिम्मत है तो बुलंद कर आवाज़ का अलम
चुप बैठने से हल नहीं होने का मसअला
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टैग : अलम
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मैं आफ़्ताब को कैसे दिखाऊँ तारीकी
तुझे मैं कैसे बताऊँ कि क्या है तन्हाई
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वो ख़्वाब क्या था कि जिस की हयात है ताबीर
वो जुर्म क्या था कि जिस की सज़ा है तन्हाई
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देख फूलों से लदे धूप नहाए हुए पेड़
हँस के कहते हैं गुज़ारी है ख़िज़ाँ भी हम ने
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हाँ मुझ पे सितम भी हैं बहुत वक़्त के लेकिन
कुछ वक़्त की हैं मुझ पे इनायात वो तुम हो
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रंग बातें करें और बातों से ख़ुश्बू आए
दर्द फूलों की तरह महके अगर तू आए
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कैसे दुख कितनी चाह से देखा
तुझे किस किस निगाह से देखा
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तेरा ग़म भी न हो तो क्या जीना
कुछ तसल्ली है दर्द ही से मुझे
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उन कही बात के सौ रूप कही बात का एक
कभी सुन वो भी जो मिन्नत-कश-ए-गोयाई नहीं
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इश्क़ में भी कोई अंजाम हुआ करता है
इश्क़ में याद है आग़ाज़ ही आग़ाज़ मुझे
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इज़हार ना-रसा सही वो सूरत-ए-जमाल
आईना-ए-ख़याल में भी हू-ब-हू न थी
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तेरे दुख को पा कर हम तो अपना दुख भी भूल गए
किस को ख़बर थी तेरी ख़मोशी तह-दर-तह इक तूफ़ाँ है
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ये आँसू ये पशेमानी का इज़हार
मुझे इक बार फिर बहका गई हो
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अब जो रूठे तो जाँ पे बनती है
ख़ुश हुआ मुझ से बे-सबब कोई
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अब ये आँखें किसी तस्कीन से ताबिंदा नहीं
मैं ने रफ़्ता से ये जाना है कि आइंदा नहीं
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अब्र-ए-आवारा से मुझ को है वफ़ा की उम्मीद
बर्क़-ए-बेताब से शिकवा है कि पाइंदा नहीं
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