अपने बालों की हिफ़ाज़त में
“बदतमीज़!” एक थप्पड़...
“नाकारा!” दूसरा थप्पड़...
“पाजी” और फिर तो जैसे थप्पड़ों की बारिश ही होने लगी और दिन में तारे नज़र आने लगे। दीवार पर लटकी कबीर, ग़ालिब और आइन्स्टाइन की तस्वीरें एक दूसरे में गड-मड हो कर नाच रही थीं और फिर तो चेहरे और गंजे सर पर पड़ने वाले बे-शुमार थप्पड़ों का हक़दार हूँ? उस वक़्त में आठवीं जमात में पढ़ता था और दिल्ली के एक हॉस्टल में रहता था। मेरी आवाज़ बहुत अच्छी थी। शायद ही स्कूल का कोई जलसा ऐसा हुआ हो जिसमें मैंने कोई नज़्म, तराना या गाना न गाया हो।
उन दिनों एक ख़ास जलसे की तैयारी चल रही थी। उस जलसे की सदारत मुल्क की एक मशहूर शख़्सियत को करनी थी। तैयारियाँ पूरे जोश-ओ-ख़रोश के साथ चल रही थीं। कई हफ़्ते पहले से क्लासें साफ़ होने लगी थीं। दीवारों को चार्ट और तस्वीरों से सजाया जा रहा था। उन दिनों हर शख़्स किसी न किसी काम में मसरूफ़ नज़र आता था।
उन ख़ास मेहमान के एज़ाज़ में एक नज़्म भी पढ़ी जानी थी और ज़ाहिर है कि ये काम मेरे इलावा स्कूल में कौन करता।
हाँ, मैं ये बताना तो भूल ही गया कि उस ज़माने में मेरे बाल कुछ ज़्यादा ही लंबे रहते थे। मेरे बालों की वजह से कई बार मेरे वालदैन भी मुझसे नाराज़ हो चुके थे और इसीलिए हॉस्टल में दाख़िल होते वक़्त मुझे ख़ुशी थी कि अब मैं अपने बालों को अपनी मर्ज़ी से बढ़ा सकता हूँ।
मगर हॉस्टल में दाख़िल होने के बा'द जल्दी ही मुझे अंदाज़ा हो गया कि यहाँ हालात और भी ज़्यादा ख़राब थे।
हमारे वार्डन साहब यूँ तो बहुत नेक और मुहतरम बुज़ुर्ग थे। लेकिन थे मेरे वालदैन से भी ज़्यादा सख़्त। वो एक आर्टिस्ट थे और ग़ैर-ज़रूरी हद तक हर चीज़ की सफ़ाई और सलीक़े पर ज़ोर देते थे... ज़ाहिर है कि मेरे बाल बहुत जल्द हम दोनों के बीच फ़साद की जड़ बन गए थे।
हर इतवार को हॉस्टल में एक बूढ़ा नाई आता था, जिसे हम ख़लीफ़ा जी कहा करते थे। मेरा इतवार का दिन वार्डन साहब के साथ आँख-मिचौली खेलते गुज़रता था। लेकिन लाख कोशिशों के बावुजूद भी चौथे या पाँचवें हफ़्ते मुझे पकड़ कर ख़लीफ़ा जी के हवाले कर ही दिया जाता था। ख़लीफ़ा जी को मेरा नाम भी लेते झुरझरी आती थी। मैं था ही इतना शैतान। मेरे बालों को छूते हुए उनके हाथ काँपने लगते थे।
जलसे से पहले इतवार को सुबह से ही वार्डन साहब बार-बार मुझे आगाह कर चुके थे कि अगर मैंने बाल नहीं कटवाए तो बहुत सख़्त सज़ा मिलेगी।
वार्डन साहब की ये बात मुझे सख़्त ना-गवार गुज़र रही थी। क्योंकि मेरी ख़्वाहिश थी कि स्टेज पर मैं अपने बालों का शानदार ताज पहन कर जाऊँ।
वार्डन साहब के चंगुल से बच निकलना ना-मुमकिन हो गया और मुझे सीधा ख़लीफ़ा जी के हवाले कर दिया गया।
जिसका ख़ौफ़ था वो घड़ी आ गई थी। यही वक़्त था फ़ैसला करने का। वार्डन साहब की धमकियों से डर कर ख़ुद को उनके हवाले कर दूँ या फिर बग़ावत।
और बस मुझे शैतान ने वरग़ला दिया और मैंने बदला लेने की ठान ली। आज मुझे अपना अगला-पिछला सब हिसाब बराबर करना था। मैंने शराफ़त से ख़लीफ़ा जी के सामने अपना सर पेश कर दिया और सर पर उस्तरा फेरने की हिदायत की।
ज़ाहिर है कि ख़लीफ़ा जी ने मेरी बात पर ज़रा सा भी यक़ीन नहीं किया। लेकिन मेरी ज़िद के आगे आख़िर-ए-कार उन्हें हार माननी ही पड़ी। ख़लीफ़ा जी ने सर पर पानी लगाया उस्तरा उठाने से पहले एक बार फिर मुझसे पूछा,
“मियाँ, तो क्या तुम सच-मुच गंजे होना चाहते हो?”
ख़लीफ़ा जी को यक़ीन दिलाने में मुझे तक़रीबन दस मिनट लगे थे। आख़िर-ए-कार काँपते हाथों से उन्होंने उस्तरा मेरे सर पर फेरना शुरू कर ही दिया। कुछ ही देर में मेरे सर पर तीन बार उस्तरा फेरा जा चुका था। अब मेरी चमकती खोपड़ी पर बाल का नाम-ओ-निशान तक न था। मैंने अपनी भंवें भी कुछ छटवा दीं। फिर मैंने बड़ी एहतियात से सर पर तेल लगा कर ख़ूब चमकाया। कमरे में जा कर एक नेकर पहना, कंधे पर तौलिया डाला और बड़ी शान से हॉस्टल से बाहर निकला। मेरे साथी हंसते-हंसते पागल हुए जा रहे थे। तालियाँ बजाते शोर मचाते हुए वो भी मेरे पीछे हो लिए। हुड़-दंगों की इस टोली के आगे-आगे बुध भिक्षू जैसी शक्ल में मैं चल रहा था।
वार्डन साहब एक क्लास सजाने में मसरूफ़ थे। हमारा हँसता ग़ुल मचाता ये जिर्गा जब वहाँ से गुज़रा तो वो घबरा कर जल्दी से बाहर निकल आए। मुझे इस हाल में देख कर तो जैसे उन्हें सकता सा हो गया। शायद उन्हें अपनी आँखों पर यक़ीन नहीं आ रहा था। उन्होंने मुझे कई बार सर से पाँव तक देखा और फिर वही हुआ जिसकी मुझे उम्मीद थी।
उस दिन मेरी ख़ूब धुनाई हुई... ख़ैर आज मुझे लगता है कि शायद वो ज़रूरी भी थी।
ज़ाहिर है कि ऐसी शक्ल में मुझे स्टेज पर नहीं जाने दिया गया मगर इससे भी बुरी बात ये थी कि कई महीनों तक मुझे एक भिक्षू की तरह रहना पड़ा और यार-दोस्तों की टोल-बाज़ी का निशाना बनना पड़ा। अलबत्ता उसके बाद से कभी किसी ने मुझसे बाल कटवाने के लिए नहीं कहा।
और आज तक अपने बालों का मैं ख़ुद ही मालिक हूँ।
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