बालाई वाला फ़क़ीर
अल्लाह रखे हमारा लखनऊ भी अजीब शह्र है। भाँत-भाँत के लोग, अनोखी बातें, यहाँ के हर बाशिंदे की अलग रीत है। अमीरों-रईसों को तो जाने दीजिए, रुपय की गर्मी हर जगह हर दिल-ओ-दिमाग़ में नया उबाल पैदा करती है। इसलिए दौलत वालों को तो छोड़िए यहाँ के ग़रीबों बल्कि भिकारियों के भी नए-नए अंदाज़ होते हैं। झोंपड़ियों में रहने वाले अगर महलों के ख़्वाब देखें तो कोई ता'ज्जुब की बात नहीं, मगर इस शह्र के फुट-पाथ पर पड़े रहने वाले फ़क़ीर भी शीर-माल और पुलाव से कम दर्जे की चीज़ खाने के लायक़ नहीं समझते। झूट नहीं कहता, एक सच्ची कहानी सुनो ऐसी जो कान की सुनी नहीं आँख की देखी है।
लखनऊ सिटी स्टेशन और जुबली कॉलेज के दर्मयान जो रेल का पुल है वो न जाने कब से भिकारियों का अड्डा चला आता था। कई लंगड़े, लूले, अंधे भिकारी और भिकारनें, गूदड़ों में लिपटे मिट्टी और गंदगी में अटे हुए इस पुल के नीचे बैठे और लेटे रहते हैं। उनमें कई कोढ़ी भी होते हैं और चाहे कोई पैसा दे या न दे, ये हर आने-जाने वाले को अपना मर्ज़ बाँटते रहे हैं।
अंग्रेज़ी राज के ज़माने में इस पुल के नीचे की आबादी इसी क़िस्म की थी। आज हमारे राज में भी वहाँ का यही हाल है। गोरों की हुकूमत में वो इन्सान न थे, हिन्दुस्तानी थे। अपनों के दौर-दौरा में वो न इन्सान हैं न हिन्दुस्तानी।
लो मैं तो कहानी कहते-कहते तुम्हें सबक़ देने लगा। अपनी हुकूमत की कमियाँ और बुराईयाँ बयान करने लगा... मगर क्या करूँ, सच्ची बात मुँह से निकल ही पड़ती है और फिर तुम्हें ध्यान क्यों न दिलाऊँ? तुम ही तो बड़े हो कर एक दिन मुल्क की हुकूमत की बाग सँभालोगे।
हाँ, तो ख़ैर सुनो। इसी रेल के पुल के नीचे एक फ़क़ीर रहता था। वो टाट पर बैठा गुदड़ी से टाँगें छुपाए रखता था उसकी टाँगें हैं या नहीं, कम से कम तालिब-ए-इल्मों में से किसी ने उसे खड़ा या चलते-फिरते नहीं देखा था जब देखा बैठे ही देखा मगर कमर के ऊपर का धड़ ख़ासा था। बड़ी सी तोंद थी। सीने पर मोटे-मोटे ढेरों बाल थे, गोल चेहरे पर बड़ी सी गोल कछड़ी दाढ़ी थी, चपटी, मोटी नाक और आँखों के धुँदले दीदों के कोनों में कीचड़ भरी हुई। सर के बाल बड़े-बड़े, उलझे हुए, मिट्टी में अटे हुए। सुबह से शाम तक बस एक रट लगाता था, “एक पैसा बाबा, एक पैसा”
आवाज़ में गरज सी थी बिलकुल जैसी कि बड़े तबल पर हाथ से चोट देने से निकलती है। मगर उस फ़क़ीर का कमाल ये था कि वो उस मोटी, भद्दी, गरज-दार आवाज़ को बिलकुल रुहाँसी बना लेता था। ऐसा मा’लूम होता था कि वो जो एक पैसा माँगता है, तो उसका ये सवाल न पूरा किया गया तो वो मर ही जाएगा। बस उस एक पैसे के न होने से उसका दम ही निकलने वाला है। वो भूक से फड़क कर जान देने ही वाला है और हम एक पैसा दे कर उसे ज़िंदा कर लेंगे नहीं तो उसके मरने का गुनाह और पाप अपने सर ढोएँगे।
इसलिए उधर से कोई आने-जाने वाला ऐसा न था जो उसे एक पैसा देने पर मजबूर न हो। कॉलेज में पढ़ने वाले लड़के, उनको पढ़ाने वाले मास्टर, जिनका भी पुल के नीचे से रास्ता था उसके लिए घर से चलते वक़्त पैसा दो पैसा जेब में डाल कर निकलते थे। बल्कि ताँगे, रिक्शे वाले भी किसी न किसी फेरे में उस फ़क़ीर को पैसा दो पैसा भेंट ज़रूर चढ़ाते थे और उसका हाल ये था कि आप पैसा दीजिए या न दीजिए उसकी ये रट, “एक पैसा बाबा... एक पैसा बाबा...” बराबर जारी रहती थी।
इस तरह जैसे कि उसकी साँस इसी आवाज़ के साथ-साथ आती-जाती है इस तरह कि दम तोड़ता मरीज़ हर साँस में कराहता है।
बहुत से लड़के, बल्कि मास्टर तक उसे पहुँचा हुआ समझते थे। बड़ा ही अल्लाह वाला, लोग कहते वो दुनिया को छोड़ चुका है उसे किसी चीज़ की कोई ज़रूरत नहीं। वो तो भीक इस लिए माँगता है कि इस तरह वो अपने को दूसरों की नज़रों में गिराता है। इस तरह अपने को गिराने से उसकी रूह और भी पाक-साफ़ होती है इन्ही में से हमीद भी था। वो बड़ा सीधा-सादा लड़का था। जुबली के दसवें दर्जे में पढ़ता था और उसका रास्ता उस पुल के नीचे से था। वो बराबर माँ से ज़िद कर के फ़क़ीर बाबा के लिए पैसा ही नहीं तरह-तरह की चीज़ें भी लाता था। कभी मिठाई, कभी फल, कभी शीरमालें, कभी मिट्टी की प्लेट में पुलाव, कभी ज़रदा।
आहिस्ता-आहिस्ता ये बात दर्जे में फूट निकली। सभों ने मिस्कोट की। ये फ़क़ीर हमीद को ख़ूब बेवक़ूफ़ बना रहा है। कुछ ईलाज होना चाहीए। तय हुआ कि स्कूल के आस-पास रहने वाले तलबा हर वक़्त उस पर निगाह रखें। कब सोता है, कब जागता है, कब हाथ मुँह धोता है। कब खाता-पीता है। जितने पैसे रोज़ कमाता है उन्हें क्या करता है।
अब क्या था दो-चार दिन ही में रिपोर्टें आने लगीं, फिर कमेटी जलसे में तय हुआ कि इस रंगे सियार का भांडा फोड़ना हमारा फ़र्ज़ है।
दूसरे ही दिन हमीद से कहा गया तुम्हारा फ़क़ीर बाबा झूटा, मक्कार बना हुआ है। वो बहुत ख़फ़ा हुआ लड़ने-झगड़ने लगा।
कहा गया, “अच्छा! आज स्कूल के मैच बा'द घर न जाओ, हमारे साथ तमाशा देखो, आठ-दस लड़के एक साथ उस शाम को रेल के पुल के पास मंडराते रहे। मग़रिब की अज़ान के साथ फ़क़ीर की रट में कमी हुई। बस जब कोई भूला-भटका पुल के नीचे से गुज़रता तो वो अपनी हाँक लगा देता। जैसे-जैसे अंधेरा बढ़ा, आवाज़ लगाने का फ़ासला भी बढ़ता रहा। कोई साढ़े सात बजे थे कि बालाई वाला आवाज़ देता हुआ पुल के नीचे पहुँचा। उसने चार बड़ी-बड़ी शीरमालें और पाओ भर बालाई फ़क़ीर बाबा को दी और उससे इसके दाम ही नहीं लिए बल्कि दिन के जमा किए हुए सारे पैसे नोटों में बदल दिए। जब वो पुल से निकला तो लड़कों ने घेरा।
“क्या ये रोज़ इतनी ही शीरमालें और बालाई लेता है?” हमीद ने पूछा।
उसने जवाब दिया, “मैं ये कुछ नहीं जानता मियाँ, सुबह दो शीरमालें और पाओ भर बालाई।”
हमीद ग़ुस्से में भरा हुआ फ़क़ीर के पास पहुँचा। उसने पूछा शर्म नहीं आती तुम्हें बाबा? भीक माँगते हो और शीरमालें और बालाई उड़ाते हो।”
फ़क़ीर ने झिड़क कर कहा, “जाओ-जाओ, मेरे धंदे पर मुँह न आओ, पाओ सवा पाओ बालाई रोज़ाना न खाऊँ तो ये दिन-भर “एक पैसा एक पैसा!” की ज़रबें कैसे लगाऊँ?”
हमीद उस वक़्त तो पाँव पटकता घर चला गया मगर उस दिन से उसने अपने साथियों का जत्था बना कर हर एक आने-जाने वाले से कहना शुरू कर दिया, “इस फ़क़ीर को कुछ न देना, ये दूसरे भिकारियों का पेट काटता है और रोज़ सवा पाओ बालाई खाता है!”
उधर छोटे बच्चों ने नारा लगाना शुरू कर दिया, “बालाई खाने वाला फ़क़ीर तोंद वाला फ़क़ीर!”
लुत्फ़ ये कि जितना ही फ़क़ीर बाबा चिढ़ता, ख़फ़ा होता उतना ही लड़कों को नारा लगाने में मज़ा आता और उतना ही उसके भिकारी साथी खी-खी कर के हंसते। ख़ैरात करने वालों का मुँह अब उनकी तरफ़ मुड़ गया था। जो बादल सिर्फ फ़क़ीर बाबा की गोद में बरसा करते थे वो अब दूसरों की झोलियों में जल-थल बनाने लगे थे।
चंद ही दिनों में फ़क़ीर बाबा का धंधा ठंडा पड़ने लगा। उसने रेल का पुल छोड़ कर शाह मीना के मज़ार के पास जा कर फ़ुट-पाथ पर बसेरा कर लिया मगर वहाँ दरख़्त की शाख़ों के सिवा धूप, ओस या पानी से बचाने वाली कोई झोंपड़ी न थी। एक रात दिसंबर की सर्दियों में बूंदा-बाँदी के साथ जब ओले भी पड़े तो फ़क़ीर बाबा को कहीं पनाह न मिली। दरख़्त की शाख़ें उसे ठंडी गोलियों की बौछार से न बचा सकीं। सुबह को वो अपनी गुदड़ी में लिपटा हुआ पाया गया।
पुलिस ने जब उसके चीथडों की तलाशी ली तो उनमें आठ सौ के बड़े नोट और पचास रूपों के छोटे नोट और पैसे बंधे मिले। कौन कहे कि अगर इन रूपों से कोई झोंपड़ी बना कर वो उसमें रहता तो उसकी जान बच जाती।
जिसने भी उसके मौत की, साथ-साथ उसके पास से मिलने वाली रक़म की बात सुनी, उसकी हालत पर अफ़सोस किया।
मगर हमीद बार-बार यही सोचता रहा, “आख़िर हुकूमत हर शह्र में ऐसे घर क्यों नहीं बना सकती जिसमें सारे भिकारी रखे जा सकें और जनता उनके धोकों और उनकी बीमारियों से महफ़ूज़ रहे?”
तुम्हें जो इस मुल्क के होने वाले हाकिम हो...
इस सवाल का जवाब देना है।
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