छः बजे चुके होंगे। दीवार से साए उतरने लगे थे। कोयलों की छत पर सुनहरी धूप अब तक सुस्ता रही थी। गली के मुहाने पर छोटा रामू खड़ा था। वो पतंग उड़ा रहा था। पतंग क्या थी एक काग़ज़ के छोटे से टुकड़े को आड़ा-टेढ़ा फाड़ कर बनाई गई थी। उसके एक किनारे पर चन्दी बाँधी हुई थी और दूसरे किनारे पर धागा। शकर की पुड़िया में से निकला हुआ।
माँ ने ही उसे वो पतंग बना कर दी थी।
छोटा सा नाज़ुक उसका हाथ... पतंग को झटका देने पर वो ऊपर नीचे होती। रामू का चेहरा भी थोड़ा ऊपर उठा हुआ था, आधे खिले हुए फूल की तरह। गालों पर ऐसी सुर्ख़ी जैसे उन पर जासन्दी की कलियाँ मल दी गई हों। पतंग ऊपर जाए तो उसके चेहरे पर हंसी आए। पतंग के नीचे आने पर चेहरा भी मुरझा जाए। जैसे-जैसे पतंग गोल-गोल घूमती वैसे-वैसे उसकी नाज़ुक सी गर्दन भी मुड़ती। कंवल के तने की तरह आगे-पीछे झूमती। इतने में हवा का झोंका आया। पतंग तेज़ी से ऊपर उड़ी और पड़ोस ही में जो एक मंज़िला मकान बना हुआ था, उसके कटहरे में जा कर अटक गई। रामू का हाथ ऊपर का ऊपर ही रह गया और थोड़ा सा ढीला पड़ गया।
पतंग कैसे निकाली जाए? रामू की नन्ही-नन्ही भवें ऊपर उठ गईं, नन्हे से होंट मुड़ गए। गालों के गड्ढों की मुस्कुराहट ग़ायब हो गई।
मकान की बालकनी में कोई बैठा था। क्या पता कौन था।
कटहरे की जाली में से मोटी-मोटी मूँछें नज़र आ रही थीं। रामू ने गर्दन उठा कर ऊपर देखा। उसे बड़ा डर लगा।
“सुनिए ज़रा... वो पतंग निकाल देंगे क्या?” आख़िर-ए-कार रामू ने हिम्मत जुटाई और डरते-डरते पूछा।
उसकी आवाज़ ऐसी थी जैसे दरख़्त की शाख़ पर चिड़िया चहचहाती हो। माले पर बैठे हुए आदमी की मूंछों में हरकत हुई। रामू बिलकुल काँपने लगा, पलकें झपकाने लगा।
“सुनिए, ज़रा मेरी पतंग नीचे फेंकिए ना!” थोड़ा रुक कर रामू ने फिर कहा। बड़ी आजिज़ी भरी आवाज़ में उसने कहा। उसने कटहरे की जानिब देखा तक नहीं। उसकी हिम्मत ही नहीं हुई। उसकी नज़र छत की तरफ़ थी।
फिर से मूँछें ज़ोर से हिलीं। उबली पड़ रही लाल-लाल आँखों ने उस कटहरे की जालियों में झाँका। जिस तरह बादल गरजता है उसी तरह कोई गरजा और काग़ज़ का एक चरमराया हुआ गोला नीचे आ गिरा। वैसे ही रामू के हाथों से धागा भी पीछे आया। रामू के पेट में हलचल सी हुई, उसके नाज़ुक कलेजे को जैसे किसी ने चरमरा दिया हो। उसे रोना भी नहीं आ रहा था। जैसे आँसू गले में ही अटक गए हों। उसने गर्दन नीचे की और बंद मुट्ठी से आँखें पूछते हुए आहिस्ता-आहिस्ता पीछे मुड़ा। उसके दूसरे हाथ में धागा था और धागे के सिरे पर काग़ज़ का चरमराया हुआ गोला था। वो भी रामू के पीछे रामू ही की तरह घिसट रहा था। रामू की पतंग थी वो।
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