दासतान-गो आया है
और अपने साथ कहानियों का पिटारा लाया है।
कौन सी कहानी सुनाए।
यही बात उसकी समझ न आए।
इतने में पिटारे से आवाज़ आई...
“आज तो मेरी बारी है भाई”
दास्तान-गो ने एक बार बच्चों की तरफ़ देखा...
और फिर अपने पिटारे में झाँका।
कहानी हरी-भरी थी।
देखने में बहुत ही भली थी।
उसने उसी को निकाला...
और यूँ गोया हुआ।
वाह वाह क्या कहानी है।
समझ लो पूरी ज़िंदगानी है।
ये तब की बात है, जब धरती पर वनस्पति का राज था।
और जंगल उस राज का सरताज था।
आप जानते हैं मगर फिर बताता हूँ।
ज़िंदगी के भेद को फिर से दोहराता हूँ।
जंगल ही हैं जो ज़िंदगी को ख़ुशबुओं से महकाते हैं।
और हवाओं को पाक साफ़ बनाते हैं।
साफ़ लफ़्ज़ों में कहूँ तो इसी से जानदार ज़िंदगी पाते हैं।
तो बच्चो हुआ कुछ ऐसा।
कि एक था लकड़हारा।
कुल्हाड़ी कंधे पर रख कर जंगल में जाता था।
और वहाँ से लकड़ियाँ काट कर लाता था।
लकड़हारे की कुल्हाड़ी जब पेड़ पर पड़ती थी।
तो पेड़ की जान निकलती थी।
उसे बड़ा दर्द होता था।
और वो हज़ार आँसू रोता था।
किसी बच्चे ने क्या कहा...
हाँ! ये सवाल अच्छा है।
मैं बताता हूँ।
सुनो! पूरी बात समझाता हूँ।
पेड़ भी हमारी-आपकी तरह साँस लेते हैं।
वो हवा से नाईट्रोजन निचोड़ते हैं...
और ऑक्सीजन छोड़ते हैं।
मतलब ये हुआ कि वो हमारी-आपकी तरह ज़िंदा हैं।
धरती पर मौजूद ज़िंदगी का बहुत बड़ा हिस्सा हैं।
दूसरे लफ़्ज़ों में कहूँ तो धरती पर ख़ुद भी पनपते हैं।
और दूसरे जानदारों को ज़िंदगी बख़्शते हैं।
हाँ तो मैं कह रहा था...
लकड़हारे की बात सुना रहा था।
एक रात, कुछ ऐसा हुआ...
लकड़हारा दिन-भर का थका-हारा था।
गहरी नींद सोया था।
सपनों की दुनिया में खोया था।
सपनों में आप जानते हैं कि ऐसा अकसर होता है।
कि आदमी किसी और ही दुनिया में जा पहुँचता है।
लेकिन लकड़हारे के साथ कुछ ऐसा हुआ।
सपने में भी वो एक बहुत बड़े जंगल में पहुँच गया।
जंगल क्या था, एक पूरी दुनिया बसी हुई थी।
लकड़हारा तो उसे देख कर देखता रह गया।
यूँ कह लीजिए कि भौंचक्का सा हो गया।
कहीं कीकर था, कहीं लिसोड़ा था
कोई नन्हा सा पौदा था, कोई सदियों बूढ़ा था।
कहीं चंदन के पेड़ महक रहे थे
तो कहीं पेड़ों पर लगे फूल चहक रहे थे
कहीं बड़े से पेड़ पर पतली सी बेल चढ़ी थी और किसी पेड़ की दाढ़ी ज़मीन में गड़ी थी।
ग़रज़ ये कि छोटे या बड़े फूलों से लदे या काँटों से भरे सब के सब मिल-जुल कर ऐसे रहते थे जैसे वो एक ही जिस्म के हिस्से थे।
जंगल क्या था, ज़िंदगी का हँसता हुआ चेहरा था।
हर तरफ़ ख़ुशियों का पहरा था।
कहानी का लकड़हारा, देख-देख कर हैरान
बार-बार उसके मुँह से निकले, या मौला! तेरी शान!
फिर उसने सोचा...
और ख़ुद को कहते सुना...
कि आदम की ज़िंदगी में ऐसा क्या है
कहीं रास्ते रौशन हो गए हैं और कहीं अंधेरा छा गया है।
कोई सुखों की नींद सोता है और कोई दुखों के
अंधेरे में भटक रहा है।
लकड़हारे ने इतना तो सोच लिया
मगर इसके आगे न बढ़ सका।
आख़िर तो बेचारा लकड़हारा था।
वो लकड़ी काटने के तसव्वुर में भटक गया,
और उसने सोचा...
मेरे पास कुल्हाड़ी होती तो एक बोझ लकड़ी काट लेता।
जंगल की अज़मत देख कर वो भूल गया था कि वो सपना देख रहा है।
वो समझता था कि वो हक़ीक़त जी रहा है।
सपने में तो ऐसा होता है।
जो दिल चाहता है, तो वो हो जाता है।
इसलिए उस वक़्त एक मो'जिज़ा हुआ।
और उसके कंधे पर एक कुलहाड़ा आ गया।
लकड़हारा ख़ुश हुआ।
और लकड़ी काटने की बात सोचने लगा।
उसने कुलहाड़ा हाथ में पकड़ा...
और पेड़ पर चोट करने के लिए कुलहाड़ा ऊपर उठाया,
तभी हवा में लहराती एक आवाज़ ने उसे टोका।
इसे मत काटो! ये नीम है।
ये तो अपने आप में पूरा हकीम है
इसे देख कर हर बीमारी काँपती है
क्योंकि इसकी कड़वाहट में अमृत की धार बसी होती है
लकड़हारे ने इधर-उधर देखा
हैरान हुआ। वहाँ तो कोई न था
फिर भी वो नीम को छोड़ कर दूसरे पेड़ की तरफ़ बढ़ा
तभी एक आवाज़ फिर हवा में लहराई
और उसके कानों से टकराई
ये पीपल है, आगे न बढ़ो! ठहर जाओ!
अपने रास्ते में काँटे न फैलाओ
इसे बचा कर, ज़िंदगी को बचाओ
इसकी जड़, छाल, पत्ते, बीज, कन-कन दवा है
इसी लिए लोग कहते हैं कि ये पेड़ नहीं, देवता है
इस तरह लकड़हारा, जिधर भी क़दम बढ़ाए...
तभी हवा में लहराती आवाज़ आए
हर पेड़ के गुण गिनवाए
और उसे काटने से टोकती जाए
होते-होते लकड़हारे के सामने एक सूखा पेड़ पड़ा
तो वो ज़मीन पर मिट्टी के साथ मिट्टी होता जा रहा था।
उसने सोचा इसे काटने से उसे कोई नहीं रोकेगा,
और वो कुलहाड़ा हाथ में लिए आगे बढ़ा।
लेकिन फिर वही आवाज़ फिर से आई...
और लकड़हारे को एक नई बात बताई।
पेड़ मर कर भी पेड़ों का भला करते हैं।
वो मिट्टी से मिट्टी हो कर उनके लिए खाद बन जाते हैं।
ये सूखी-सड़ी लकड़ी, दूसरों के लिए ज़िंदगी बन जाएगी,
और ख़ुद भी पत्ते पत्ते में हरी-भरी हो कर लहराएगी।
आख़िर लकड़हारा सपने में चलता-चलता
आगे बढ़ता रहा और आख़िर वो एक बरगद के नीचे गया।
बरगद... आप जानते हैं कि पेड़ों का बादशाह है।
बादशाह है, मगर ख़ुद को ज़िंदगी का ख़ादिम समझता है।
उसी ने हवा के ज़रिये पैग़ाम भेजा था।
और लकड़हारे को पेड़ काटने से रोका था।
लकड़हारा सोते में सपना देख रहा था।
मगर ख़ुद को जागता हुआ समझ रहा था।
उसे जब ये एहसास हुआ कि वो जंगल के बादशाह के दरबार में पहुँच गया है,
तो उसने सोचा, मेरे लिए अपनी बात कहने का यही मौक़ा है।
उसने हिम्मत बटोरी और यूँ गोया हुआ...
“हुज़ूर लकड़ी नहीं काटूँगा तो बेचूँगा क्या?
इसी में रोज़ी है, रोटी है, इसी से अपना गुज़ारा करता हूँ।
ये सहारा न रहा तो आज नहीं तो कल मरता हूँ।”
थोड़ी देर के लिए वहाँ सन्नाटा छा गया।
तभी हवा का एक ठंडा झोंका आया।
उसने लकड़हारे को दिलासा दिया।
और आख़िर यूँ गोया हुआ...
देखो लकड़हारे, ये जंगल ज़िंदगी की बेश-क़ीमत दौलत है।
साफ़ लफ़्ज़ों में कहूँ तो ये ज़िंदगी की बुनियादी ज़रूरत है।
यूँ समझ लो कि उनके दम से ही ज़िंदगी के घर में सवेरा है।
ये नहीं होंगे तो वही आख़िरत का सा अंधेरा है।
अब रही बात तुम्हारी रोज़ी-रोटी का तो हम,
उसका भी इंतिज़ाम करते हैं।
और तुम्हारी झोली मौसमी फलों से भरते हैं।
आवाज़ का ऐसा कहना था...
कि तभी एक मोजिज़ा हुआ।
भाँत-भाँत के फल हवा में उड़ते हुए आए।
और लकड़हारे के सामने ढेर के ढेर लग गए।
फलों का भारी गट्ठर उठाए लकड़हारा घर की तरफ़ जा रहा था।
तो उसका सपना टूट गया।
कहते हैं कि अब लकड़हारे के घर में ज़िंदगी की बड़ी रहमत है।
यूँ कहिए कि अब बरकत ही बरकत है।
इतना कह कर दास्तान-गो ने अपना पिटारा खोला।
और बच्चों से यूँ गोया हुआ...
आपका फ़र्ज़-ए-अव्वलीं है।
जंगल बचा के रखना।
धरती के हैं ये ज़ेवर
उनको सजा के रखना।
जंगल के दम से हम हैं।
जंगल से ज़िंदगी है।
जंगल की हिफ़ाज़त ही
क़ुदरत की बंदगी है।
ये कहते हुए दास्तान-गो ने अपना पिटारा लपेटा।
और दूसरी जगह जाने के लिए उठा।
बच्चों ने कहा, जाओ... ज़रूर जाओ और ये संदेशा सबको सुनाओ।
लेकिन हमें अपना नाम और पता तो बताओ।
अरे नाम में क्या रखा है? ज़िंदगी का हासिल तो अफ़साना है।
और किताबों में मेरा ठिकाना है।
जहाँ क़ारी है, वहीं मेरा डेरा है।
और वक़्त का हर दौर मेरा है।
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