हुद-हुद का बच्चा
आख़िर प्रोग्राम बन ही गया। जून का पहला हफ़्ता था। हमलोग दिल्ली जाने की तैयारियाँ करने लगे। हम सात आदमियों की टोली में मसख़रा रमेश भी था, जिसको हमने बड़ी मुश्किल से इस सफ़र के लिए तैयार किया था, क्योंकि हम जानते थे कि इसके बग़ैर सफ़र का लुत्फ़ आधा रह जाएगा। बनारस कैंट से अपर इंडिया एक्सप्रेस में हम सब सवार हो गए इत्तिफ़ाक़ ही काहिए कि उस दिन कोई ख़ास भीड़ न थी और हम लोगों को ऊपर की बर्थें सोने के लिए मिल गईं। रात को ग्यारह बजे तक तो हम लोग रमेश की बातों से लुत्फ़-अंदोज़ होते रहे, मगर जब उसे नींद आने लगी तो हम लोगों ने भी सोने का इरादा कर लिया।
मेरी आँख उस वक़्त खुली जब-जब मुर्ग़ की बाँग की कई आवाज़ें मेरे कानों के पर्दे से टकराईं। मैं हड़-बड़ा कर उठ बैठा। मुर्ग़ की बाँग मैंने ट्रेन के अंदर पहली बार सुनी थी। अगर ट्रेन के बाहर किसी मुर्ग़ ने बाँग दी भी हो तो वो ऊपर इंडिया एक्सप्रेस की घड़-घड़ाहट को चीर कर अंदर कैसे आ सकती थी? बड़ी अजीब बात थी। मैंने इतना ही सोचा था कि मेरी नज़र अपने सामने वाली बर्थ पर पड़ी जिस पर रमेश अपनी हँसी रोके बैठा था। जैसे ही हम दोनों की नज़रें मिलीं उसकी हँसी का आबशार उबल पड़ा। नीचे बैठे हुए मेरे दूसरे साथ भी क़हक़हा लगाने लगे।
ये मुर्ग़ की बाँग हमारे दोस्त रमेश के गले ही का करिश्मा थी। वो मुख़्तलिफ़ परिंदों और जानवरों की बोलियों की नक़ल उतारने में माहिर था।
टूण्डला स्टेशन आया। हमने नाश्ता किया और फिर कम्पार्टमेंट में आ बैठे। नीचे की सीट पर एक गोल-मटोल से साहब लंबी ताने सो रहे थे। हम लोगों के क़हक़हे के बावजूद उनकी आँख नहीं खुली थी। रमेश ने शरारत भरी नज़रों से हमें देखा और उनके सिरहाने जा बैठा हम लोग समझ गए कि अब अगला शो क्या होगा। रमेश ने मुर्ग़ की तीन-चार बाँगें उन साहब के कान के पास दीं और बाहर खिड़की में झाँकने लगा। हम लोग भी अपनी हँसी बुरी तरह रोके हुए थे।
उन साहब ने सबसे पहले अपनी सीट के नीचे झाँक कर देखा और फिर इधर-उधर। उसके बाद उन्होंने जमाही ली और चादर से अपने आप को ढ़क कर भी दराज़ हो गए। पन्द्रह मिनट तक बिल्कुल ख़ामोशी छाई रही। हम लोग अपनी हँसी पी गए थे। पन्द्रह मिनट के बाद रमेश ने फिर बाँग दी। इस बार वो साहब उठ खड़े हुए। उन्होंने बाक़ायदा चारों तरफ़ नज़रें दौड़ानी शुरू कीं और कई सीटों के नीचे झाँका भी, फिर अपनी सीट पर आकर बैठ गए हम लोगों को शक-भरी निगाहों से घूरा और सीट की पुश्त से लगकर ऊँघने लगे। दस मिनट बाद रमेश ने बाँग का एक और नारा लगाया।
उन साहब का ग़ुस्सा अपनी हद पार कर चुका था। उन्होंने सख़्त लहजे में हम लोगों को मुख़ातिब किया देखने में तो आप शरीफ़ और पढ़े-लिखे मालूम होते हैं, मगर साथ में मुर्ग़े-मुर्ग़ियाँ लेकर चलते हैं और अपने साथ-साथ दूसरों को भी परेशान करते हैं। उन्होंने हमारी बेद की बनी हुई बड़ी अटैची को घूरा और यूँ सर हिलाया जैसे समझ गए हूँ कि हम लोगों ने मुर्ग़े-मुर्ग़ियाँ उसी अटैची में बंद कर रखी हैं!
ग्यारह बजे रहे थे। ट्रेन अपनी आख़िरी दौड़ ख़त्म कर रही थी कि एक टिकट चेकर हमारे कम्पार्टमेंट में घुस आया। टिकट चेकर हम लोगों का टिकट देख कर लौटने ही वाला था कि गोल-मटोल साहब ने लो का और मुर्ग़े मुर्ग़ियाँ!
चेकर फिर हम लोगों की तरफ़ मुख़ातिब हो गया, कहाँ हैं मुर्ग़ मुर्ग़ियाँ।
गोल-मटोल साहब ने हम लोगों की अटैची की तरफ़ इशारा कर दिया।
कियों जनाब? टिकट चेकर ने रमेश को इस तरह मुख़ातिब किया जैसे वो कोई बड़ा मुजरिम हो।
जी-जी-ओ-वो-मुर्ग़ मुर्ग़ियाँ रमेश ने बनावटी घबराहट का इज़हार क्या।
जी दी कुछ नहीं। आप को इनका महसूल मा जुर्माना अदा करना होगा। जल्दी कीजिए। चेकर ने सख़्ती से कहा।
जी लेकिन वो, मुर्ग़-मुर्ग़ियाँ हैं कहाँ? रमेश ने सवालिया नज़रों से इसकी तरफ़ देखा।
चेकर के कहने पर जब रमेश ने अपनी अटैची खोली तो चेकर के साथ-साथ गोल-मटोल साहब की आँखें भी खुली की खुली रह गईं। अटैची कपड़ों से ऊपर तक भरी हुई थी।
चेकर ने हम लोगों से नज़र भी न मलाई। सिर्फ़ गोल-मटोल साहब की तरफ़ एक बार गाली देने वाली नज़र से देखा और आगे बढ़ गया।
टिकट चेकर कम्पार्टमेंट के दरवाज़े से बाहर झाँक रहा था कि रमेश ने अजीब क़िस्म की चिड़ियों की बोली से कम्पार्टमेंट को गूँजा दिया।
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