इंद्र का आसमान
शाम के ठीक साढ़े पाँच बजे अन्ना मुझे व्हील चेयर पर बिठा कर बरामदे तक ले आती है। ऐसा रोज़ ही होता है। दरीचे से आने वाली किरनें नित-नए मंज़र बनाती हैं। मैं आसमान की वुसअतों में गुम हो जाता हूँ। दूर, उफ़ुक़ पर, आँखों से ओझल होते हुए परिंदे मुझे अपने साथ किसी अनजाने सफ़र पर निकल पड़ने का पैग़ाम देते हैं।
ठंडी हवा के झोंके मेरी रूह को सहलाते हैं और मुझे ऐसा महसूस होता है जैसे मैं आहिस्ता-आहिस्ता फ़िज़ाओं में तहलील होता जा रहा हूँ। सूरज शफ़क़ की लाली बिखेरता हुआ अपने घर लौट रहा है। सारा आसमान तमतमा उठा है। नारंजी शुवाओं ने माहौल को ख़्वाब-नाक़ बना दिया है।
ऐसे में आसमान के शुमाली गोशे में क़िरमज़ी बादल का एक छोटा सा टुकड़ा उड़ता हुआ चला आ रहा है। अब वो क़रीब आ चुका है और निगाहों के बिलकुल सामने है। बड़ा शरीर है, देखते ही देखते उसने कई आकार बनाए, कई रूप बदले, पहले बिल्ली? फिर बकरी? फिर ख़रगोश और हिरन!
आहा, किस क़दर प्यारा हरनोटा है।
कैसी आज़ादी से क़ुलाँचें भर रहा है। काश उसकी तरह मैं भी अपने बंगले के लॉन में खेल सकता।
मगर मेरी दुनिया तो बस व्हील चेयर तक ही महदूद है।
मेरा जी चाहता है, अपने हम जोलियों की तरह मैं भी खेलूँ-कूदूँ या उन मैदानों की तरफ़ जा निकलूँ जहाँ झरने के पास वो हिरनोटा कुलेलें कर रहा है।
ओह, ये हिरनोटा अपनी चाल कैसे भूल गया? शायद वो किसी ख़तरे की बू सूँघ रहा है। तभी तो हिरासाँ हो कर इधर-उधर देख रहा है और अपनी कनौतियाँ रह-रह कर घुमा रहा है। अब समझा हिरनोटा वाक़ई मुसीबत में पड़ गया है। उसकी तरफ़ लपकता सुरमई ग़ुबार स्याह धब्बे में तबदील हो रहा है। या ख़ुदा, स्याह धब्बे ने भेड़िए की शबीह इख़्तियार कर ली। भेड़िया अपनी लपलपाती ज़बान निकाले हिरनोटे के तआक़ुब में है।
अब क्या होगा? हिरनोटा भाग रहा है और वहशत-ज़दा निगाहों से पीछे मुड़ कर देखता जा रहा है। भेड़िया एतिमाद के नशे में चूर है। वो उसे पलक झपकते में जा लेगा। हिरनोटा बेबस है। वो आख़िर कब तक अपनी जान बचाएगा। उफ़, उसकी टाँगें तो अभी से जवाब देने लगी हैं। भेड़िए की एक नपी तुली जिस... और... नहीं... मैं ये मंज़र अपनी आँखों से नहीं देख सकूँगा।
ऐ ख़ुदा, इससे पहले कि भेड़िया अपने नापाक इरादे में कामयाब हो, तू ग़ैब से हिरनोटे की मदद कर।
लगता है दुआ क़ुबूल हुई है।
अभी कुछ ही दिनों पहले मुझे बोर्डिंग स्कूल में भिजवाने के सारे इंतिज़ाम मुकम्मल कर लिए गए थे। लेकिन अब्बू ने सख़्ती से मना कर दिया और मैं बोर्डिंग स्कूल में झोंके जाने से बच गया था।
वहाँ उस किनारे से नीले बादल का एक हयूला सा नमूदार हुआ है। कोई इस तरफ़ आ रहा है। धुएँ के मरगोले छोड़ता वो तेज़ी से दौड़ रहा है। हाँ अब साफ़ नज़र आने लगा है। वो एक नरसिंघा है। उसकी रफ़्तार लम्हा ब-लम्हा बढ़ती जा रही है। भेड़िए ने उसे मुड़ कर देखा है उसे ज़ो'म है कि वो अपने नुकीले दाँतों से शिकार की गर्दन दबोच सकता है। उधर हिरनोटे की भी उम्मीद बंध गई है। उसके पैरों में जान सी पड़ गई है। ऐ ख़ुदा तेरा लाख शुक्र।
अब मैं अपनी आँखों से देख सकूँगा। शाबाश मेरे हिरन। भेड़िया जब मग़्लूब होने लगता है तो भाग खड़ा होता है। झपटो, तुम्हारे मज़बूत सींग उसके ग़ुरूर को छेदने के लिए काफ़ी हैं। हमला करो, इसी तरह डटे रहो... उछाल फेंको उसे अपने सींगों से। वाह, तुमने तो कमाल ही कर दिया। मैंने कहा था ना, भेड़िए ने आख़िर अपनी हार मान ली।
अब ज़रा हिरनोटे की ख़बर, भागते-भागते बे-दम हो चुका है। ख़ूब चाटो उसका बदन... वो देखो भेड़िया दूर भागा जा रहा है... अब तो ग़ायब ही हो गया।
अरे, ये क्या! तुम भी चल दिए?
तारीकी बढ़ने लगी है। अन्ना ने एक-एक कर के, बरामदे के सारे बल्ब रौशन कर दिए हैं।
शुक्रिया बहादुर हिरनोटे... अल-विदा प्यारे हिरनोटे... अब मैं भी रुख़स्त होता हूँ।
मेरे अब्बू दफ़्तर से बस आते ही होंगे। अच्छा ख़ुदा-हाफ़िज़।
- पुस्तक : ہنڈولہ اور دوسری کہانیاں (पृष्ठ 76)
- रचनाकार : عطاءالرحمن طارق
- प्रकाशन : گل بوٹے پبلی کیشنز ممبئی (2012)
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