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मुल्ला नसरूद्दीन हिन्दुस्तान आए

शकीलुर्रहमान

मुल्ला नसरूद्दीन हिन्दुस्तान आए

शकीलुर्रहमान

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    प्यारे बच्चो, अगर आपको कहीं तेज़, चालाक आँखें और साँवले चेहरे पर स्याह दाढ़ी लिए कोई शख़्स नज़र जाए तो रुक जाईए और ग़ौर से देखिए, अगर उसकी क़बा पुरानी और फटी हुई हो, सर पर टोपी मैली और धब्बों से भरी हुई हो और उसके जूते टूटे हुए और ख़स्ता-हाल हों तो यक़ीन कर लीजिए कि वही ख़्वाजा नसरुद्दीन उर्फ़ ख़्वाजा बुख़ारा हैं।

    वही ख़्वाजा नसरुद्दीन जो मुल्ला नसरुद्दीन के नाम से मा'रूफ़ हैं और जिनकी कहानियाँ आज भी इराक़, ईरान, तुर्की, रूस, जर्मनी और इंग्लिस्तान वग़ैरा में बहुत से लोगों को याद हैं। उज़बेकिस्तान, आज़रबाईजान, तुर्कमानिया और तज़ाकिस्तान वग़ैरा में उनका ज़िक्र इस तरह रहता है जैसे वो अपने घर के हों।

    ख़्वाजा बुख़ारा का गधा भी घर ही का कोई फ़र्द नज़र आता है जहाँ ख़्वाजा का ज़िक्र वहाँ उनके गधे का ज़िक्र।

    तो बच्चो, ख़्वाजा नसरुद्दीन उर्फ़ ख़्वाजा बुख़ारा उर्फ़ मुल्ला नसरुद्दीन अपने गधे पर सवार हिन्दोस्तान के सफ़र पर आए हुए हैं। होशियार चमकती हुई आँखों, साँवले चेहरे पर स्याह दाढ़ी उगाए, फटी पुरानी क़बा और सर पर मैली-कुचैली टोपी के साथ कोई शख़्स गधे पर सवार या अपने गधे को थामे कहीं नज़र जाए तो बिला-तकल्लुफ़ उसे रोक लीजिए वर्ना आप एक बहुत बड़ी शख़्सियत के हक़ीक़ी-दीदार से महरूम हो जाएँगे। बढ़ती हुई क़ीमतों की पर्वा करते हुए ख़्वाजा को एक शाम पुर-तकल्लुफ़ खाना ज़रूर खिलाईए। हाँ! जब भी ख़्वाजा को मद'ऊ कीजिए तो ये हरगिज़ भूलिए कि उनके गधे के लिए हरी-हरी घास की भी ज़रूरत होगी। ऐसा होगा तो गधा बिदक जाएगा। ख़ुदा-न-ख़्वास्ता गधा बिदका तो ये समझिए कि ख़्वाजा बुख़ारा उर्फ़ मुल्ला नसरुद्दीन बिदके।

    एक शाम इंडिया गेट से सरपट जो अपना गधा दौड़ाया तो ख़्वाजा बुख़ारा उर्फ़ मुल्ला नसरुद्दीन ने बोट कल्ब के मैदान के पास ही कर दम लिया।

    बोट कल्ब पर इतनी भीड़ थी कि अल्लाह तौबा, कोई जलसा हो रहा था और नेता लोग ताबड़-तोड़ अपना भाषण दाग़ रहे थे। मुल्ला जी अपने गधे को लिए एक तरफ़ बैठ गए। गधा भूका था और ख़्वाजा बुख़ारा को भी भूक लग रही थी। गधा इत्मीनान से पेट भरने लगा इसलिए कि लॉन में हरी-हरी घास मौजूद थी। मुल्ला नसरुद्दीन की नज़र सामने खड़े ख़्वांचे वाले के ऊपर थी कि जिसके गिर्द लोगों का हुजूम था, उन्हें मा’लूम था कि ख़्वांचे वाला क्या फ़रोख़्त कर रहा है। सोच रहे थे भीड़ छट जाए तो देखें उसके पास क्या है।

    बच्चो, तुम सब जानते हो कि अपने देश के नेता लोग क्या पसंद करते हैं। एक अदद माईक्रो-फ़ोन और एक स्टेज। सुनने वाले दो-चार ही क्यों हों। यहाँ स्टेज भी था, माईक्रो-फ़ोन भी और जनता भी, भला किस बात की कमी थी, नेता लोगों की फटी-फटी आवाज़ों से कान के पर्दे फट रहे थे। दर्मियान में नारे भी बुलंद हो रहे थे, ज़िंदाबाद, मुर्दाबाद।

    मुल्ला नसरुद्दीन के लिए ये अजीब-ओ-ग़रीब मंज़र था। सोचने लगे, ये लोग दीवाने हैं या ख़ून के प्यासे। ये बात ब-ख़ूबी समझ रहे थे कि जो नेता लोग भाषण दे रहे हैं वो अच्छे लोग नहीं हैं। अपने लफ़्ज़ों से नफ़रत फैलाने की कोशिश कर रहे हैं। मुल्ला जी सोचने लगे अजीब बात है। कहने को ये लोग रहनुमा हैं और बातें नफ़रत की करते हैं। इससे तो नुक़्सान उनके अपने लोगों का ही होगा। अपने मुल्क का होगा।

    जब ख़्वाजा साहब दिल्ली पहुँचे थे तो उन्होंने एक शख़्स से पूछा था, “मियाँ दिल्ली का क्या हाल है?”

    तो उसने जवाब दिया था, “क्या पूछते हो साहब, हर जानिब सिर्फ़ धमा-चौकड़ी है।”

    अब मुल्ला जी की समझ में धमा-चौकड़ी का क्या मतलब समझ में आया। अचानक जलसा ख़त्म हुआ और मुल्ला जी ने देखा एक भगदड़ मच गई है। लोग हैं कि बस एक दूसरे पर लुढ़कते जा रहे हैं। कुछ लोग पिसते जा रहे हैं लेकिन नीचे गिर कर भी अपनी बत्तीसी निकाले हुए हैं जैसे उनके जोड़ों का दर्द ठीक हो रहा हो। देखते ही देखते तमाम ख़्वांचे वालों की चलती-फिरती दुकानें लुटने लगीं। ख़्वांचा वाले आइसक्रीम वाले सब इस तरह भाग रहे थे जैसे दुम दबा कर भाग रहे हों।

    ख़्वाजा बुख़ारा को बस्रा का वो सारबान याद गया बच्चो, जिसे आहंगर ने क़र्ज़ वसूल करने के लिए सिर्फ़ एक तमाँचा रसीद किया था और वो अपनी ऊँटनी छोड़ सरपट दौड़ा था। जैसे उसके पीछे बोतल का जिन्न निकल आया हो।

    ख़्वाजा नसरुद्दीन सोच रहे थे, लोग इत्मीनान से क्यों नहीं निकल रहे हैं। ये हंगामा ख़ुदा क्या है? देखते ही देखते एक दूसरा हंगामा खड़ा हो गया। वो ये कि वो लोग जो नेता लोगों का भाषण सुन रहे थे आपस में लड़ने लगे। धूल उड़ने लगी, चीख़-पुकार, नारे-बाज़ी, मुल्ला जी का गधा भी घास छोड़ कर उस जानिब देखने लगा कि आख़िर माजरा क्या है। उसकी समझ में नहीं आया तो लगा ढैंचू-ढैंचू करने। मुल्ला जी ने उसे डाँटा, कहा, “ऐ अक़्ल-मंद गधे तुझे क्या हो गया है... ये लोग तो तक़रीरें सुन कर बावले हो रहे हैं। नफ़रत अपनी झोली में भर-भर कर लिए जा रहे हैं, लड़ते भी जा रहे हैं और नफ़रत से झोली भरते भी जा रहे हैं, ज़रा इनकी आवाज़ें थम जाएँ फिर अपना राग सुनाने की कोशिश कर।” गधा अपने मालिक की बात फ़ौरन समझ गया और ख़ामोश हो गया।

    मुल्ला जी ने सर्द आह भर कर कहा, “मेरे प्यारे गधे तू नेताओं से बहुत अच्छा है, तू मदद करने वाला जानवर है और वो... वो नफ़रत फैलाने वाले लोग! मेरे प्यारे गधे, मैंने बुख़ारा में सुना था कि इस मुल्क में भूक है, बेकारी और बे-रोज़गारी है। ग़रीबी और महंगाई है। सैलाब और ख़ुश्क-साली है, इतनी सारी बीमारियाँ हैं, फिर ये नई बीमारी नफ़रत की कहाँ से टपक पड़ी।”

    गधे ने उनकी बातें सुनते हुए एक बार ढैंचू कहा, या'नी मालिक आप ठीक फ़र्मा रहे हैं और ख़ामोश हो गया।

    जब अंधेरा होने लगा तो मुल्ला नसरुद्दीन अपने गधे पर सवार हुए और आहिस्ता-आहिस्ता आगे बढ़ने लगे। एक शख़्स दूसरी जानिब से दौड़ा रहा था। उसने मुल्ला जी को गधे पर सवार देखा तो हाँपते हुए बोला, “हज़रत आप जो भी हों, यहाँ से चले जाईए, इस तरफ़ पुलिस की गोलियाँ चल रही हैं। आप ख़्वाह-म-ख़्वाह शहीद होना क्यों चाहते हैं।”

    मुल्ला नसरुद्दीन ने उस शख़्स को रोक कर कहा, “अस्सलामु अलैकुम।”

    उस शख़्स ने कहा, “वा अलैकुम अस्सलाम कहने का मेरे पास वक़्त नहीं है, मैं तो भाग रहा हूँ, सुना है कि भागने वाले सलाम का जवाब देते हैं तो पीछे से शैतान उसे दबोच लेता है।” वो शख़्स बुरी तरह हाँप रहा था।

    मुल्ला नसरुद्दीन मुस्कुराते हुए बोले, “मियाँ जो हो रहा है होने दो मैं तो कबीर दास की तलाश कर रहा हूँ। वो मुझे मिल जाएँ तो हम दोनों हालात पर क़ाबू पा लेंगे।”

    “कबीर दास? वो बरसे कम्बल भीगे पानी वाले कबीर दास?” उस शख़्स ने पूछा... “कौन?”

    “हाँ वही, कहाँ मिलेंगे?” मुल्ला नसरुद्दीन ने पूछा।

    “वो तो हमारे हाल पर मातम करते हुए जाने कहाँ गुम हो गए, उन्होंने लोगों को बहुत समझाया लेकिन किसी ने उनकी बात नहीं मानी, फिर वो चले गए, मुझे मु'आफ़ कीजिए मैं दौड़ रहा हूँ।” वो शख़्स फिर दौड़ने लगा।

    मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, “आप शौक़ से दौड़िए, सिर्फ़ एक पैग़ाम है मेरा उसे इस मुल्क के तमाम लोगों तक पहुँचा दीजिए, ये पैग़ाम दर-अस्ल दास कबीर का है और अब मेरा भी समझिए, लोगों से कहिए इस पैग़ाम को पानी में घोल कर पी जाएँ, अल्लाह शिफ़ा देगा।”

    जल्दी बताईए पैग़ाम क्या है, मैं दौड़ रहा हूँ।” उस शख़्स ने कहा।

    “मेरा पैग़ाम ये है, इसे पढ़ लीजिए, याद कर लीजिए और इस मुल्क के तमाम लोगों से कहिए ये बाबा कबीर दास का पैग़ाम एक बार फिर सुन लो। मुल्ला नसरुद्दीन यही पैग़ाम सुन कर बुख़ारा से हिन्दोस्तान आए हैं।”

    “आप जल्दी से पहले पैग़ाम तो पढ़िए में दौड़ रहा हूँ।” उस शख़्स ने कहा।

    मुल्ला नसरुद्दीन ने दास कबीर का ये शे'र पढ़ा,

    छेना बढ़े छन ओतरे सो तो प्रेम ना होए।

    अघट प्रेम पिंजर बसे प्रेम कहावे सोए।

    “इसका मतलब जल्दी से बताइए मैं दौड़ रहा हूँ।” उस शख़्स ने गुज़ारिश की।

    मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा “मियाँ इसका मतलब ये है कि जो एक लम्हे में चढ़े और दूसरे लम्हे में उतर जाए वो मुहब्बत नहीं होती जब ऐसी मुहब्बत इन्सान में पैदा हो जो कम होने वाली हो वही मुहब्बत कहलाती है।”

    उस शख़्स ने कहा, “बहुत ख़ूब, बहुत ख़ूब। बाबा कबीर दास का जो पैग़ाम आप लाए हैं मैं उसे मुल्क के तमाम लोगों तक पहुँचा दूँगा। मैं दौड़ रहा हूँ, दौड़ते-दौड़ते हर घर में ये बात पहुँचा दूँगा। अब चला, इसलिए कि मैं दौड़ रहा हूँ।”

    मुल्ला नसरुद्दीन मुस्कुराए और गधे पर सवार जामा मस्जिद इलाक़े की तरफ़ रवाना हो गए। उनकी ज़बान पर ये मिसरा' था...

    अघट प्रेम पिंजर बसे प्रेम कहावे सोए

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