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क़िस्सा लखन लाल जी का

शकीलुर्रहमान

क़िस्सा लखन लाल जी का

शकीलुर्रहमान

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    मुझे याद है मैं बहुत छोटा था।

    वो अचानक हमारी हवेली में दनदनाते हुए दाख़िल हुए थे, इंतिहाई भयानक चेहरा, कहीं से भालू, कहीं से हनुमान और कहीं से लंगूर, बड़े-बड़े बाल, एक उछलती-लचकती बड़ी सी दुम, उछलते हुए मेरे सामने आन खड़े हुए और उछल-उछल कर कहने लगे,

    “नाक धोधड़ की नाक नजर खर्रे खाँ।

    नाक धोधड़ की नाक नजर खर्रे खाँ।”

    मैं डर से थर-थर काँपने लगा। मेरे मामूँ को शरारत सूझी। उन्होंने मुझे पकड़ कर उनके और भी क़रीब कर दिया और उन्होंने मुझे गोद में ले लिया। फिर क्या था पूरी हवेली मेरी चीख़ से गूँजने लगी, रोते-रोते बे-हाल हो गया, तुम नहीं जानते बच्चो मेरा क्या हाल हो गया। जब उन्होंने मुझे छोड़ा तो मैं निढाल हो चुका था। थर-थर काँप रहा था, फिर मुझे फ़ौरन ही तेज़ बुख़ार गया। शब में भी मेरे कानों में उनकी आवाज़ गूँजी...

    “नाक धोधड़ की नाक नजर खर्रे खाँ।”

    अभी तक मुझे वो बे-मानी आवाज़ याद है। बचपन की यादों के साथ ये आवाज़ भी जाती है। कभी उस आवाज़ का ख़ौफ़ तारी हो जाता था तो थर-थर काँपने लगता था।

    वो हर जुमे को जाते, उसी तरह चीख़ते हुए, “नाक धो धड़ की नाक नजर खर्रे खाँ।” और मैं सहम जाता। दालान के दरवाज़े के पीछे छुप जाता, चूँकि हर हफ़्ते जुमे के दिन मेरे अब्बू मेरे हाथ से मोहताजों को पैसे-कपड़े तक़सीम कराते इसलिए वो भी हर हफ़्ते बस उस दिन जाते हैं, जो मिल जाता ले कर चले जाते। उन्हें देख कर मेरी रूह फ़ना हो जाती।

    वो और उनके बे-मानी लफ़्ज़ों की भयानक आवाज़ मुझे परेशान कर देने के लिए काफ़ी थी। हवेली के कुछ लोगों को मुझे डराना होता ना बच्चो, तो वो कहते, “देखो वो गया बंदर की दुम वाला।”

    “नाक धोधड़ की नाक नजर खर्रे खाँ।”

    और मेरी हालत ग़ैर हो जाती, कभी पलंग के नीचे कभी लिहाफ़ कम्बल में दुबक जाता।

    बहुत दिन बीत गए...

    जब कुछ बड़ा हुआ तो मालूम हुआ उनका नाम लखन लाल है और वो एक बहरूपिया हैं, मुख़्तलिफ़ क़िस्म के भेस बदलते और घर-घर जा कर पैसे माँगते हैं।

    याद है एक रोज़ वो डाकिया बन कर आए और हवेली के चबूतरे पर बैठे। कुछ लोग धोका खा गए। फिर वो बैठे रहे चबूतरे पर और अपनी कहानी सुनाते रहे। मैं भी पास ही बैठा उनकी कहानी सुनने लगा। मुझे याद नहीं उनकी कहानी क्या थी अलबत्ता ये तास्सुर अब तक है कि वो जो कहानी सुना रहे थे उसमें कुछ दुख भरी बातें थीं। अपनी कहानी सुनाते-सुनाते रो पड़े थे। मेरा दिल भी भर आया था इसलिए कि मैं किसी को रोता देख नहीं सकता।

    इतना याद है उनका नाम लखन लाल था, मोतीहारी शह्र से कुछ दूर ‘बुलवा टाल’ मैं रहते थे एक छोटी सी झोंपड़ी में। आहिस्ता-आहिस्ता उनसे दोस्ती होने लगी। मुझे बताते किस-किस तरह बहरूप भर कर लोगों को ग़लत-फ़हमी में डालते रहे हैं। उनकी हर बात बड़ी दिलचस्पी से सुनता, वो कभी औरत बन जाते, कभी पोस्टमैन, कभी हनुमान, कभी कृष्ण कन्हय्या। जब वो अपनी बात पूरी कर लेते तो मैं फ़र्माइश करता एक बार बोलिए ना, “नाक धो धड़की नाक नजर खर्रे खाँ।” और वो मेरी ख़्वाहिश पूरी करते हुए अपने ख़ास अंदाज़ से कहते, “नाक धोधड़ की नाक नजर खर्रे खाँ।” उनसे इस तरह सुनते हुए अच्छा लगता।

    फिर वो कहाँ और मैं कहाँ, मैं अपने घर और फिर अपनी रियासत से बहुत दूर और वो मेरे और अपने पुराने शह्र में जाने कितना ज़माना बीत गया। उनकी याद आई तो अपने पहले ख़ौफ़ से उनसे दोस्ती तक हर बात याद गई। कश्मीर में अपने बच्चों को उनके बारे में बताया और मेरे बच्चों को भी इन बे-मानी लफ़्ज़ों से प्यार सा हो गया। “नाक धो धड़की नाक नजर खर्रे खाँ।”

    बहुत दिन बीत गए...

    मोतीहारी गया तो लखन लाल की याद आई, पुराने लोगों में उनसे भी मिलने की बड़ी ख़्वाहिश हुई, अपने अज़ीज़ दोस्त मुमताज़ अहमद से कहा, “मेरे साथ बुलवा टाल चलो, लखन जी का मकान ढूँढें, शायद ज़िंदा हों और मुलाक़ात हो जाए।”

    बड़ी मुश्किल से उनकी झोंपड़ी मिली, हम अंदर गए, देखा एक खटोला है, उसी खटोले पर एक छोटा सा पिंजर, एक इन्सान का ढाँचा पड़ा हुआ है, लखन लाल बहुत ही ज़ईफ़ हो चुके थे और सिकुड़ गए थे। अंदर धंसी हुई आँखें... बाल, अब्रू ग़ायब, दाँत नदारद, हद दर्जा सूखा जिस्म, खुला हुआ मुँह, चेहरे पर इतनी झुर्रियाँ कि बस उन्हें हटा कर ही चेहरे को ढूँढा जा सकता है। मुँह खोले अपनी धंसी हुई आँखों से हमें देख रहे थे। कहानी बस ख़त्म होने को थी, चिराग़ बस बुझने को था, अच्छा हुआ जो मिल लिए, अच्छा होता जो मिलते। वो इस रूप में मिलेंगे, सोचा भी था। वो भालू, हनुमान, लंगूर का मिक्सचर याद गया कि जिसने उछल-उछल कर पहली बार मुझे इतना ख़ौफ़ज़दा किया था कि अब तक भूला नहीं हूँ।

    क्या ये वही शख़्स है?

    क्या ये वही लखन लाल हैं?

    उन्होंने मुझे पहचाना नहीं। मुमताज़ ने उन्हें मेरी याद दिलाई। उन्हें याद गया, पुराना वक़्त, मेरा नाम सुनते ही खटोले पर टकटकी बाँध कर देखने वाले की धंसी हुई आँखों में आँसू गए। उनके प्यार की ख़ुशबू मुझ तक पहुँच गई। धंसी हुई आँखों से कई क़तरे टपक पड़े, मेरी आँखों में भी अपने पुराने बुज़ुर्ग दोस्त को देख कर आँसू गए। उन्होंने आहिस्ता-आहिस्ता एक हाथ बढ़ाया तो मैंने थाम लिया। उसी वक़्त उनके होंटों पर मुस्कुराहट की एक लकीर सी खिंच गई। ऐसी लकीर जो मिटाए मिटे। नीम आलूद धंसी हुई आँखें भी मुस्कुरा रही थीं। वो एक टक बस मुझे देखे जा रहे थे। हम दोनों आँखों में पिछली कहानियों और रिश्तों को पढ़ रहे थे। कोई आवाज़ थी।

    बच्चो! मैं सोच रहा था उम्र भर बहरूप भरते रहे, सबको हँसाते-डराते रहे। आपका जवाब नहीं लखन जी, मालिक के पास जाने के लिए जो नया बहरूप भरा है वो ए-वन है। सुनते हैं मालिक हर वक़्त हँसता ही रहता है और उसी की हंसी पर दुनिया क़ायम है। ज़रा अब तो हंस कर देखे, ये बहरूप देख कर रो पड़ेगा।

    जब रुख़स्त होने लगा तो उन्होंने रोका, आहिस्ता-आहिस्ता बोलने लगे, “नाक धो धड़की नाक नजर खर्रे खाँ।” पूरे चेहरे पर अजीब तरह की मुस्कुराहट फैली।

    फिर मेरी तरफ़ देखते ही देखते आँखें बंद कर ली। पास खड़े उनके किसी रिश्तेदार ने बताया वो अचानक इसी तरह सो जाते हैं।

    और एक दिन लखन अचानक अबदी नींद सो गए।

    बहरूपिया अपने नए रूप के साथ मालिक के पास पहुँच गया।

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