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फ़िराक़ गोरखपुरी के क़िस्से
माज़ी-परस्त की हिमाक़त
एक माज़ी परस्त अदीब किसी जगह फ़ख़्रिया अंदाज़ में बयान कर रहे थे, “पिछले दिनों अपने मकान की तामीर के लिए मुझे अपने गाँव जाना पड़ा। जब ज़मीन खुदवाई गयी तो बिजली की तारें दस्तियाब हुईं और बिजली की वो तारें अंदाज़न दो तीन हज़ार साल पुरानी थीं। इससे अंदाज़ा
मांगे के पैसों से तवाज़ो (सत्कार)
एक तरक़्क़ी पसंद शायर जो शराब के बेहद रसिया थे, फ़िराक़ साहब के घर पहुंचे और परेशान हाल सूरत बनाकर बोले, “फ़िराक़ साहब! बात इज़्ज़त पर आ गई है, मैं बहुत परेशान हूँ। किसी तरह तीस रुपया उधार दे दीजिए।” फ़िराक़ साहब कुछ कहने वाले थे कि वो बोले, “देखिए इनकार
फ़िज़िक्स में फ़ेल होना
फ़िराक़ गोरखपुरी आगरा यूनिवर्सिटी में इंटर साइंस के तालिब इल्म थे। तमाम मज़ामीन में तो वो अच्छे नंबर हासिल करते लेकिन फ़िज़िक्स में अक्सर फ़ेल होजाते। एक रोज़ कॉलेज के प्रिंसिपल ने उन्हें बुलाकर पूछा, “भई क्या बात है, बाक़ी मज़ामीन में तो तुम्हारा नतीजा
फ़िराक़ का अकेलापन और चोर की आमद
फ़िराक़ साहब की सारी ज़िंदगी तन्हाई में गुज़री। आख़िरी ज़माने में तो घर में नौकरों के सिवा और कोई नहीं रहता था। कभी कभी तो तन्हा इतने बड़े घर में ख़ामोश बैठे हुए सिगरेट पिया करते थे। ख़ासतौर से शाम को ये तन्हाइयाँ दर्दनाक हद तक गहरी हो जाती थीं। एक ऐसी ही
इकाई, दहाई, सैंकड़ा, हज़ार, दस हज़ार
बशीर बद्र ने अपना शे’री मजमूआ’ “इकाई” इस इल्तिमास के साथ फ़िराक़ साहब को भेजा कि वो अपनी गिराँ क़दर राय से नवाज़ें। फ़िराक़ साहब ने अपनी राय लिखी, “इकाई, दहाई, सैंकड़ा, हज़ार, दस हज़ार।” आपका फ़िराक़ गोरखपुरी
शायर बद-किरदार क्यों?
डाक्टर एजाज़ हुसैन इलाहाबाद यूनीवर्सिटी में ग़ज़ल पढ़ा रहे थे। फ़िराक़ साहब भी वहाँ बैठे थे। उन्होंने डाक्टर एजाज़ हुसैन से सवाल किया, “ऐसा क्यों कहा जाता है कि ग़ज़लगो शायर आ’म तौर से बदकिरदार होते हैं।” एजाज़ साहब बरजस्ता बोले, “उनके सामने आपकी मिसाल रहती
हाली की पैदाइश
नुशूर वाहिदी ने फ़िराक़ से कहा कि पिछले हफ़्ते मैं उर्दू की कापियां देख रहा था। एक साहबज़ादे ने जो हाली की सवानेह हयात लिखना चाहते थे, लिखा था कि हाली पानीपत के मैदान में पैदा हुए। फ़िराक़ साहब बहुत हँसे कहने लगे, “हिस्ट्री का तालिब इल्म होगा शायद।”
प्रोफ़ेसर पुजारी की दुनियादारी
यूनीवर्सिटी के एक प्रोफ़ेसर बहुत ज़्यादा पूजापाट करते थे मगर दुनयावी तरक़्क़ी के पीछे पागल भी थे। एक दिन फ़िराक़ साहब को शरारत सूझी और टहलते-टहलते उनके घर पर पहुंच गए। दस्तक दी तो नौकर बरामद हुआ। फ़िराक़ साहब ने पूछा, “प्रोफ़ेसर साहब हैं?” नौकर ने कहा, “हैं
गंवार की राय
एक बार फ़िराक़ कुछ हिन्दी के लेखकों की महफ़िल में पहुंचे, इधर-उधर की बातों के बाद गुफ़्तगू का रुख़ हिन्दी और उर्दू की तरफ़ मुड़ गया। हिन्दी के एक अदीब ने कहा, “फ़िराक़ साहब! उर्दू भी कोई ज़बान है। इसमें गुल-ओ-बुलबुल के अलावा और है ही क्या? हल्की-फुल्की और गुदगुदी
क़व्वाली और शेर का फ़र्क़
इलाहाबाद के मुशायरे में फ़िराक़ साहब को अपनी आदत के ख़िलाफ़ काफ़ी देर बैठना पड़ा और दूसरे शायरों को सुनना पड़ा। फ़िराक़ साहब की मौजूदगी में जिन शायरों ने पढ़ा वो सब इत्तिफ़ाक़ से पाटदार आवाज़ और गलेबाज़ थे। वो बारी-बारी आए और फीकी ग़ज़लों को सुरताल पर गा कर चले
फ़िराक़ का नाड़ा
एक मुशायरे में हर शायर अपना कलाम खड़े हो कर सुना रहा था। फ़िराक़ साहब की बारी आई तो वो बैठे रहे और माइक उनके सामने लाकर रख दिया गया। मजमे से एक शोर बुलंद हुआ, “खड़े हो कर पढ़िए... खड़े हो कर पढ़िए।” जब शोर ज़रा थमा तो फ़िराक़ साहब ने बहुत मासूमियत के साथ
किलोमीटर का ज़माना
कानपुर के एक मुशायरे में जब एक शायर अपना कलाम पढ़ रहे थे तो नुशूर वाहिदी ने टोका, “शे’र मीटर से बेनियाज़ हैं।” फ़िराक़ ने जवाब दिया, “पढ़ने दो ये ज़माना मीटर का नहीं किलोमीटर का है।”
मिस्टर दारू वाला
एक दफ़ा सफ़र में फ़िराक़ साहब के साथ एक पारसी नौजवान मिस्टर दारुवाला भी इत्तिफ़ाक़ से उसी कम्पार्टमंट में थे। रास्ते भर दिलचस्प बातें होती रहीं। इलाहाबाद का स्टेशन आया तो फ़िराक़ साहब उतरने की तैयारी करने लगे। मिस्टर दारूवाला ने कहा कि वो उनके घर आकर उनसे
पेंशन याफ़्ता माशूक़
फ़िराक़ साहब और साहिर होशियारपुरी एक साथ अमृतसर के एक होटल में पहुंचे। साहिर ने होटल का रजिस्टर भरना शुरू किया। फ़िराक़ साहब पास की एक कुर्सी पर बैठ गए। साहिर साहब पेशा के ख़ाना पर पहुंचे तो फ़िराक़ साहब की तरफ़ मुड़कर बोले, “क्यों साहब, मैं अपना पेशा
किस से झगड़ें?
फ़िराक़ साहब जब पाकिस्तान के दौरे से वापस आए जहाँ उनकी बड़ी आव-भगत हुई थी, तो कुछ लोग उनसे मिलने आए। उस ज़माने में दोनों मुल्कों में आमद-ओ-रफ़्त पर बड़ी पाबंदियाँ थीं और लोग एक दूसरे के बारे में जानने के बड़े ख़्वाहिशमंद रहते थे। फ़िराक़ साहब ने उन लोगों को पाकिस्तान
फ़िराक़ के बाद का शायर
एक मुशायरे में फ़िराक़ के बाद सुनने वालों की तरफ़ से एक नौजवान शायर ज़ुबैर रिज़वी से कलाम सुनाने की फ़रमाइश की गयी। मुशायरे के सेक्रेटरी ने ज़ुबैर को माइक पर बुलाया तो वो निहायत नियाज़मंदी से झिजकते हुए कहने लगा, “क़िबला, फ़िराक़ साहब के बाद में क्यूँ-कर शे’र
फ़िराक़ और झा साहब
इलाहाबाद यूनीवर्सिटी में कुछ लोग फ़िराक़ और डाक्टर अमरनाथ झा को लड़ाने की कोशिश में लगे रहते थे। एक बार एक महफ़िल में फ़िराक़ और झा दोनों मौजूद थे। दोनों को तक़रीर भी करना था। इंग्लिश डिपार्टमेंट के एक लेक्चरर ने जिसकी मुस्तक़ली का मुआमला ज़ेर-ए-ग़ौर था, कहना
ख़ालिस घी का पकवान
एक मर्तबा जगन्नाथ आज़ाद इलाहाबाद में फ़िराक़ गोरखपुरी के हाँ ठहरे हुए थे। जब खाना लाया गया तो फ़िराक़ ने आज़ाद से मुख़ातिब हो कर कहा, “खाइये आज़ाद साहब! निहायत लज़ीज़ गोश्त है।” आज़ाद ने मज़ाक़ से काम लेते हुए एक आ’म सा फ़िक़रा चुस्त कर दिया, “आप खाइए, हम तो
कली का चटकना और जूती का चटख़्ना
एक बेतकल्लुफ़ महफ़िल में मजनूं गोरखपुरी ने फ़िराक़ साहब से पूछा, “चटकना, और चटख़ना में किसका इस्तेमाल कहाँ करना मुनासिब है?” फ़िराक़ साहब ने पहले तो क़हक़हा लगाया फिर बोले, “चटकती है कली, और जूतियां चटख़ाई जाती हैं।”