ख़ालिद मुबश्शिर
ग़ज़ल 15
नज़्म 9
अशआर 8
अनासिर की घनी ज़ंजीर है
सो ये हस्ती की इक ताबीर है
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टपक के दीदा-ए-नम से सदाएँ देता है
जो एक हर्फ़-ए-तमन्ना दिल-ए-तबाह में था
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तुम्हारी याद का मरहम बनाम-ए-दिल कर दूँ
तमाम हिज्र के ज़ख़्मों को मुंदमिल कर दूँ
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तुम्हारी याद का मरहम बनाम-ए-दिल कर दूँ
तमाम हिज्र के ज़ख़्मों को मुंदमिल कर दूँ
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मुझे शक है होने न होने पे 'ख़ालिद'
अगर हूँ तो अपना पता चाहता हूँ
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