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नासिर काज़मी
ग़ज़ल 111
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न अब वो यादों का चढ़ता दरिया न फ़ुर्सतों की उदास बरखा
यूँही ज़रा सी कसक है दिल में जो ज़ख़्म गहरा था भर गया वो
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भरी दुनिया में जी नहीं लगता
जाने किस चीज़ की कमी है अभी
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ये कह के छेड़ती है हमें दिल-गिरफ़्तगी
घबरा गए हैं आप तो बाहर ही ले चलें
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वो शहर में था तो उस के लिए औरों से भी मिलना पड़ता था
अब ऐसे-वैसे लोगों के मैं नाज़ उठाऊँ किस के लिए
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पुस्तकें 55
चित्र शायरी 32
दयार-ए-दिल की रात में चराग़ सा जला गया मिला नहीं तो क्या हुआ वो शक्ल तो दिखा गया वो दोस्ती तो ख़ैर अब नसीब-ए-दुश्मनाँ हुई वो छोटी छोटी रंजिशों का लुत्फ़ भी चला गया जुदाइयों के ज़ख़्म दर्द-ए-ज़िंदगी ने भर दिए तुझे भी नींद आ गई मुझे भी सब्र आ गया पुकारती हैं फ़ुर्सतें कहाँ गईं वो सोहबतें ज़मीं निगल गई उन्हें कि आसमान खा गया ये सुब्ह की सफ़ेदियाँ ये दोपहर की ज़र्दियाँ अब आइने में देखता हूँ मैं कहाँ चला गया ये किस ख़ुशी की रेत पर ग़मों को नींद आ गई वो लहर किस तरफ़ गई ये मैं कहाँ समा गया गए दिनों की लाश पर पड़े रहोगे कब तलक अलम-कशो उठो कि आफ़्ताब सर पे आ गया