तुफ़ैल चतुर्वेदी के शेर
नफ़रतों का अक्स भी पड़ने न देना ज़ेहन पर
ये अँधेरा जाने कितनों का उजाला खा गया
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हम बुज़ुर्गों की रिवायत से जुड़े हैं भाई
नेकियाँ कर के कभी फल नहीं माँगा करते
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सफ़र अंजाम तक पहुँचे तो कैसे
मैं अपने रास्ते में ख़ुद खड़ा हूँ
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हर तरफ़ फैला हुआ बे-सम्त बे-मंज़िल सफ़र
भीड़ में रहना मगर ख़ुद को अकेला देखना
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सभी ज़ख़्मों के टाँके खुल गए हैं
हमें हँसना बहुत महँगा पड़ा है
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कभी ज़माना था उस की तलब में रहते थे
और अब ये हाल है ख़ुद को उसी से माँगते हैं
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वो मौसमों पर उछालता है सवाल कितने
कभी तो यूँ हो कि आसमाँ से जवाब बरसे
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उस के वा'दे के एवज़ दे डाली अपनी ज़िंदगी
एक सस्ती शय का ऊँचे भाव सौदा कर लिया
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एक साए की तलब में ज़िंदगी पहुँची यहाँ
दूर तक फैला हुआ है मुझ में मंज़र धूप का
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ये बिफरती मौज अंदेशे समुंदर और मैं
डूबती साँसें हथेली पर मिरा सर और मैं
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