ज़ुहूर नज़र
ग़ज़ल 15
नज़्म 7
अशआर 12
घर से उस का भी निकलना हो गया आख़िर मुहाल
मेरी रुस्वाई से शोहरत कू-ब-कू उस की भी थी
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तन्हाई न पूछ अपनी कि साथ अहल-ए-जुनूँ के
चलते हैं फ़क़त चंद क़दम राह के ख़म भी
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बाद-ए-तर्क-ए-उल्फ़त भी यूँ तो हम जिए लेकिन
वक़्त बे-तरह बीता उम्र बे-सबब गुज़री
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वो जिसे सारे ज़माने ने कहा मेरा रक़ीब
मैं ने उस को हम-सफ़र जाना कि तू उस की भी थी
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वो भी शायद रो पड़े वीरान काग़ज़ देख कर
मैं ने उस को आख़िरी ख़त में लिखा कुछ भी नहीं
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चित्र शायरी 2
वीडियो 3
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