दुनिया के हैं न दीन के दिलबर के हो गए
दुनिया के हैं न दीन के दिलबर के हो गए
हम दिल से कलमा-गो किसी काफ़िर के हो गए
उट्ठे न बैठ कर कभी कू-ए-हबीब से
उस दर पे क्या गए कि उसी दर के हो गए
ऐ चश्म-ए-यार मान गए तेरे सेहर को
दिल दे के मो'तक़िद तिरे मंतर के हो गए
हम अर्ज़-ए-हाल कर न सके उफ़-रे रोब-ए-हुस्न
जाते ही उन के सामने पत्थर के हो गए
ऐ 'ख़ार' दिल जिगर पे ही क़ाबू नहीं रहा
हम से ख़िलाफ़ ग़ैर तो क्या घर के हो गए
- पुस्तक : Aazadi ke baad dehli men urdu gazal (पृष्ठ 128)
- रचनाकार : Professor Unwan Chishti
- प्रकाशन : Asila Offset Printers, Kalan Mahal, Dariyaganj, New Delhi-6 (1989)
- संस्करण : 1989
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