एक ही पल में बदलता है नज़ारा सारा
और इस पल के लिए बाक़ी तमाशा सारा
ज़िंदगी ने न किसी इम्तिहाँ को दोहराया
तजरबा काम ही आया नहीं अपना सारा
धूप में जलना है उस को जो शजर बन के जिए
उस के साए में रहे ख़ुश ये ज़माना सारा
उस की रहमत का ख़ज़ाना वो लुटाए ऐसे
जिस ने माँगा नहीं जो उस ने वो पाया सारा
बख़्श मुझ को न अधूरी कोई ने'मत मौला
या तो दरिया ही दे पूरा या तो सहरा सारा
मैं ने बाज़ार में पूरा ही रखा था ख़ुद को
कोई ऐसा न मिला जिस ने ख़रीदा सारा
अक्स साबूत तो है टूटे हुए शीशे में मगर
एक टुकड़ा भी गँवाया तो गँवाया सारा
होता है भीड़ की फ़ितरत से मदारी वाक़िफ़
जब तलक ख़त्म न हो खेल है मजमा सारा
इतनी वुसअ'त नहीं दामन में 'नवा' के यारों
प्यार कैसे वो समेटे कहो इतना सारा
स्रोत:
Word File Mail By Salim Saleem
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