वो नहीं जानता है जब कुछ भी
वो नहीं जानता है जब कुछ भी
उस से कहना है बे-सबब कुछ भी
कौन अपना है कौन बेगाना
हम को मा'लूम है ये सब कुछ भी
बे-ग़रज़ हो के सब से मिलते हैं
हम कि रखते हैं बे-तलब कुछ भी
जब भी मिलता है मुस्कुराता है
ख़्वाह उस का हो अब सबब कुछ भी
हम भी मिल कर बिछड़ गए उस से
बात ऐसी नहीं अजब कुछ भी
आदमी का अमल से रिश्ता है
काम आता नहीं नसब कुछ भी
लाख ज़ुल्मत का बोल-बाला हो
दो-घड़ी में न होगी शब कुछ भी
ऐसा दुनिया से जी उलझता है
नहीं दुनिया में जैसे अब कुछ भी
लोग क़िस्मत पे छोड़ देते हैं
बात बनती नहीं है जब कुछ भी
जो नहीं चाहते थे हम कहना
उस से कहना पड़ा वो सब कुछ भी
ज़ेहन मफ़्लूज हो गया शायद
याद रहता नहीं है अब कुछ भी
वो किसी का अदब नहीं करते
जो नहीं जानते अदब कुछ भी
उस के दिल से उतर गए 'नादिर'
तुम को आता नहीं है ढब कुछ भी
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