शिव कुमार, जो अपने क़लमी नाम शीन काफ़ निज़ाम से मारूफ़ हैं, उर्दू के एक मुमताज़ शाइर और अदबी मुहक़्क़िक़ हैं। निज़ाम ने कई शेरी मजमूए शाए किए हैं, जिनमें “लम्हों की सलीब”, “दश्त में दरिया”, “नाद”, “साया कोई लंबा न था”, “बयाज़ें खो गई हैं”, “गुमशुदा दैर की गूँजती घंटियाँ” और “रास्ता ये कहीं नहीं जाता” शामिल हैं। निज़ाम के शेरी मजमूए “गुमशुदा दैर की गूँजती घंटियाँ” को 2010 में साहित्य अकादमी एवार्ड बराए उर्दू से नवाज़ा गया।
गुफ़्तार और तहरीर के लफ़्ज़ों का बतदरीज और नागुज़ीर ज़वाल सुस्ती या बेअमली की तरफ़ नहीं ले जाता, बल्कि यह एक तकलीफ़-देह जद्दोजहद की बाक़ियात बन जाता है, ऐसी कोशिश जिसका मक़सद इस बेमानी दुनिया में कुछ मानी तलाश करना है, जहाँ हर शख़्स मामूल की ज़िंदगी से आगे कुछ सुनने से क़ासिर है। शाइर असली लफ़्ज़ों, पैकरों, अलामतों और इस्तिआरों के ज़वाल पर अफ़सोस महसूस करता है।
क़लमी नुस्ख़ों का लाज़िमी तौर पर गुम हो जाना और खोए हुए मंदिरों की घंटियों की सदाओं का मिट जाना शाइर को अनजाने गिर्दाब में धकेल देता है, और उसके लफ़्ज़ और भी कम होते दिखाई देते हैं। यही वह कैफ़ियत है जो शीन काफ़ निज़ाम के तख़लीक़ी इज़हार का ख़ुलासा पेश करती है, जिनकी शाइरी की छठी किताब “गुमशुदा दैर की घंटियाँ” मुअज़्ज़िज़ साहित्य अकादेमी एवार्ड हासिल हुआ है।
शीन काफ़ निज़ाम की तख़लीक़ी महारत एक ऐसी ज़बान में जलवागर होती है जो उनकी मादरी ज़बान नहीं है। नर्म गो शाइर कहते हैं-
“उर्दू इक़बाल और फ़ैज़ की मादरी ज़बान नहीं थी। मज़ीद यह कि एक मुमताज़ जदीद हिस्सियत के शाइर, मीराजी, कहते थे कि मेरी माँ उर्दू नहीं जानती। मादरी ज़बान का मसअला कुछ पेचीदा है; यह वह ज़बान होती है जिसमें इन्सान को इज़हार की सहूलत हासिल होती है और जो उसकी अंदरूनी सोच की अक्कासी करती है। ज़बान सीखे गए रवय्ये की नुमाइंदा होती है।
उर्दू हमारी सदियों पुरानी मुशतर्का तहज़ीब की सबसे नुमायाँ सक़ाफ़ती अलामत है। तहज़ीब की सच्ची तस्वीर किसी ज़बान के ज़रीए ही सामने आती है, और उर्दू हमारी मुशतर्का तहज़ीब की लिसानी शनाख़्त है।
मैं कबीर, सूरदास और मीरा की भक्ति शाइरी के दरमियान बड़ा हुआ और मेरे इर्द गिर्द अमीर ख़ुसरौ और असग़र गोंडवी जैसे शाइर भी मौजूद थे। मुझे बताया गया कि इन्सान की शनाख़्त उसके काम से होती है, नाम की कोई हैसियत नहीं होती। ना दौलत, ना ओहदा इन्सान को एक ऐसा मुश्तर्का नुक्ता तलाश करना होता है जो मुख़्तलिफ़ शनाख़्तों को जोड़ता है।”
अपने नाम की वज़ाहत करते हुए वह कहते हैं-
“मेरा पूरा नाम शिव किशन है और मैं आलिमों के एक ब्राह्मण ख़ानदान में पैदा हुआ। इसीलिए हमारे ख़ानदान को ब्राह्मण ख़ानदान जो सनद देता है कहा जाता है मतलब यह कि हमारा काम इल्म का दरवाज़ा खोलना और जहालत और इब्हाम की धुंद को दूर करना है। मेरे वालिदैन का नाम गणेशदास और गौरी था। मैं इकलौता बच्चा हूँ। मेरी इब्तिदाई तालीम जोधपुर से दूर जालोर में हुई, फिर मैं मीराबाई के शहर के एक स्कूल में दाख़िल हुआ जहाँ मेरे मामूँ और मुमानी उस्ताद थे। मैंने संस्कृत में तालीम हासिल की, फिर जोधपुर वापस आ गया। मैंने हाईस्कूल साइंस और रियाज़ी के मज़ामीन से पास किया, फिर इंजीनियरिंग कॉलेज में दाख़िल हुआ, लेकिन वह शोबा मुझे रास ना आया। बाद में मैंने एस, एम. के. कॉलेज में दाख़िला लिया। मैंने अपनी ज़िंदगी में 18 नौकरियाँ बदली हैं। अब मैं रिटायर हो चुका हूँ और तन्हाई मेरी दाइमी साथी है। उर्दू के अलावा मैं राजस्थानी, अंग्रेज़ी और हिन्दी जानता हूँ। मैंने फ़ारसी हकीम मुईनुद्दीन अहमद से सीखी, जितनी भी फ़ारसी आती है, उन्ही की देन है। मेरी ज़िंदगी जद्दोजहद से भरी रही जो कोई ख़ास बात नहीं, क्योंकि हर शख़्स को मसाइल का सामना होता है और हर किसी को उनसे निपटना पड़ता है। मैं एक आम आदमी हूँ और ज़िंदगी के उतार-चढ़ाव से दो चार रहता हूँ। मैं अपनी तकलीफ़ों की लंबी फ़ेहरिस्त बयान करने पर यक़ीन नहीं रखता क्योंकि मुझे किसी की हमदर्दी दरकार नहीं।”
अपने नाक़िदों का ज़िक्र करते हुए निज़ाम कहते हैं कि जो ज़िंदा हो, उस पर तन्क़ीद होना लाज़िम है, और तारीफ़ अक्सर मरने के बाद ही की जाती है।
“इन्सान को मुख़ालिफ़त से बेपर्वा हो कर अपनी राह पर चलना चाहिए। एहसासात को मौज़ूँ लफ़्जों में ढालना शाइर की बुनियादी ज़िम्मेदारी है। अदब एक आईना है, लेकिन उसका इस्तेमाल सिर्फ ख़ुद को देखने के लिए होना चाहिए, दूसरों को दिखाने के लिए नहीं। मैंने बहुत से लोगों से सीखा है और आज भी बहुत से शाइरों और अहल-ए-इल्म से सीखता हूँ। मैं मौलाना माहिर-उल-क़ादरी, जोश मलीहाबादी, अब्र अहसनी, मनोहर सहाय अनवर, कालीदास गुप्ता रज़ा, वज़ीर आग़ा, गोपीचंद नारंग, शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी और वारिस अलवी का ममनून हूँ।”
शीन काफ़ निज़ाम की एक दर्जन से ज़्यादा किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें चार तन्क़ीदी किताबें भी शामिल हैं। वह एक लगातार लिखने वाले अदीब हैं और अमरीका, बर्तानिया, फ़्रांस, पाकिस्तान, सीरिया, सऊदी अरब, क़तर, मुत्तहिदा अरब अमारात और बहरीन में मुनाक़िद होने वाले कई बैन-उल-अक़वामी सेमीनारों और मुशाइरों में शिरकत कर चुके हैं।
(शाफ़े क़िदवाई के एक लेख से लिया गया)