Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

लेखक : शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी

संस्करण संख्या : 001

प्रकाशक : डायरेक्टर क़ौमी कौंसिल बरा-ए-फ़रोग़-ए-उर्दू ज़बान, नई दिल्ली

प्रकाशन वर्ष : 2005

भाषा : उर्दू

श्रेणियाँ : शोध एवं समीक्षा

पृष्ठ : 511

ISBN संख्यांक / ISSN संख्यांक : 81-7587-090-7

सहयोगी : शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी

शेर, ग़ैर शेर और नस्र
For any query/comment related to this ebook, please contact us at haidar.ali@rekhta.org

पुस्तक: परिचय

فاروقی صاحب کی زیر نظر تنقیدی کتاب "شعر غیر شعر اور نثر" 1973ء میں شائع ہوئی۔ یہ فاروقی کے نہایت اہم مضامین کا مجموعہ ہے۔ یہ کتاب شمس الرحمن فاروقی کی نظریہ سازی کی پہلی اور عمدہ کتاب ہے۔ اسی عنوان سے کتاب میں پہلا مضمون بھی شامل ہے جو تقریبا ایک سو سترہ صفحے پر محیط ہے۔ اگر اس مضمون کو الگ سے شائع کیا جائے توعنوانِ مذکورہ سے نظری تنقید کی ایک مبسوط کتاب بن سکتی ہے۔ اس مضمون میں فاروقی صاحب کا وہ تنقیدی نظریہ پوری طرح نمایاں ہے جو نظم و نثر کی تعریف و تفریق، اس کے مواد و موضوعات، اور اس کی ہئیت و اظہاریت کا بھر پور اقداری تعین کرتا ہے۔ اور جو کلی طور پر استدلالی تجزیے پر استوار ہے۔ اس کے علاوہ اس کتاب میں غالب پر چار مضامین ہیں غالب اور جدید ذہن اردو شاعری پر غالب کا اثر غالب کی مشکل پسندی اور غالب کی ایک غزل کا تجزیہ۔ دو مضامین افسانے کی حمایت میں ہیں۔ اسی طرح کچھ اور بھی مضامین شامل ہیں جو جدید تر مباحث کے حامل ہیں۔ ان کی ہر تحریر کچھ پرانی لکیروں کو کاٹتی ہے اور کچھ نئی لکیریں کھینچتی ہے۔ آپ ان سے اختلاف یا اتفاق کرسکتے ہیں لیکن ان کے پیچھے موجود ایک گہری فکر کے تسلسل اور سخت تنقیدی ریاضت کو تسلیم کرنا ہی پڑتا ہے۔ فاروقی کے یہاں تنقید باضابطہ اپنے ایک علمی ڈسپلن کے ساتھ آئی ہے۔ ان کی تحریروں کا خاص منطقی، وضاحتی اور استدلالی انداز اردو تنقید کی پوری روایت میں ہمیں چونکاتا ضرور ہے۔ یہ کریڈٹ بھی فاروقی کو ہی جاتا ہے کہ اردو تنقید میں بہت سے نئے نظریاتی مباحث کا آغاز ان کی تحریروں سے ہوا ہے۔ شاعری، شعر فہمی، شعر اور نثر کے مابین فرق، افسانہ، اس کی فنی تشکیل اوراس کی قرآت کے مسائل کے سیاق میں جو بنیادی سوالات ان کی تحریرں نے قائم کئے ہیں وہ آج بھی اردو تنقید کا حوالہ ہیں۔

.....और पढ़िए

लेखक: परिचय

वह सात भाईयों में सबसे बड़े और तेरह बहन-भाईयों में तीसरे नंबर पर थे। पढ़ने-लिखने से दिलचस्पी विरसे में मिली थी। दादा हकीम मौलवी मुहम्मद असग़र फ़ारूक़ी तालीम के शोबे से वाबस्ता थे और फ़िराक़ गोरखपुरी के उस्ताद थे। नाना मुहम्मद नज़ीर ने भी एक छोटा सा स्कूल क़ाइम किया था जो अब कॉलेज में तब्दील हो चुका है।
स्कूल के दिनों में ही शाइरी से अदबी ज़िंदगी का आग़ाज़ किया। सात साल की उम्र में एक मिसरा लिखा : “मालूम क्या किसी को मिरा हाल-ए-ज़ार है”। मगर मुद्दतों इस पर दूसरा मिसरा न लग सका। पहला ही शेर मुकम्मल न हुआ तो शाइरी का पीछा छोड़ दिया और एक क़लमी रिसाले ‘गुलिस्तान’ की तर्तीब-ओ-इशाअत शुरू कर दी। रिसाला क्या था ये समझिए कि सोला या बीस या चौबीस सफ़्हात काट कर उन पर अपनी ‘तसनीफ़ात’ दर्ज करते जाते। वालिद की नज़र से ये रिसाला गुज़रा तो उन्होंने टोका कि तुमने बाज़ अशआर ना-मौज़ूँ दर्ज किए हैं। वालिद ने हर मिस्रे की तक़्ती करके समझाया कि कहाँ ग़लती हुई है। फ़ऊलुन-फ़ऊलुन की तकरार उन्हें इतनी अच्छी लगी कि उसी दम इरादा कर लिया कि आइन्दा ज़माने में अरुज़ी ज़रूर बनेंगे। मैट्रिक के बाद अफ़साना-निगारी का बा-क़ाइदा आग़ाज़ हुआ मगर उन्हें न अपने पहले अफ़साने का नाम याद रहा न उस पर्चे का जिसमें वह अफ़साना छपा था। 1949-50 में एक नाॅविलेट “दलदल से बाहर” तहरीर किया जो ‘मेयार’ मेरठ में चार क़िस्तों में शाए हुआ फिर नस्र को ही ज़रीया-ए-इज़हार बना लिया।

फ़ारूक़ी साहब 30 सितंबर 1935 को ज़िला प्रतापगढ़ में पैदा हुए थे, जो उनका ननिहाल था। अपने आबाई वतन आज़मगढ़ से मैट्रिक और गोरखपुर से ग्रेजुएशन करने के बाद इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में दाख़िला लिया। इलाहाबाद में वह एक अज़ीज़ के यहाँ रहते थे जिनके घर से यूनिवर्सिटी कई मील दूर थी। वह अक्सर पैदल ही आया-जाया करते थे, उस वक़्त भी उनके हाथ में किताब खुली होती और वह वरक़-गर्दानी करते हुए चलते रहते। वह ज़माना ही और था, रास्ते वाले उनके मुताले की महवियत देखते हुए ख़ुद ही उन्हें रास्ता दे देते।
इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से उन्होंने अंग्रेज़ी में एम.ए. किया और इस शान से कि यूनिवर्सिटी भर में पहली पोज़ीशन हासिल की। उनकी तस्वीर अंग्रेज़ी रोज़नामे ‘अमृत बाज़ार’ पत्रिका में शाए हुई तो तमाम ख़ानदान वालों ने इस पर फ़ख़्र किया। इस ज़माने में उनकी मुलाक़ात अपनी क्लास फ़ेलो जमीला ख़ातून हाशमी से हुई जो उनकी ज़ेहानत से बहुत मुतअस्सिर थीं, यही जमीला हाशमी बाद में जमीला फ़ारूक़ी के नाम से ख़ानदान की बहू बनीं।

एम.ए. के बाद शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी तदरीस के शोबे से वाबस्ता हो गए मगर साथ ही मुक़ाबला-जाती इम्तिहान की तैयारी भी करते रहे। 1957 में उन्होंने ये इम्तिहान पास किया और पोस्टल सर्विस के लिए उनका इंतिख़ाब कर लिया गया। इसके बाद उनकी पोस्टिंग हिन्दुस्तान के मुख़्तलिफ़ शहरों में होती रही और उन्हें बैरून-ए-मुल्क सफ़र के भी बहुत से मौक़े मयस्सर आए।
इसी दौरान शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी के तन्क़ीदी मज़ामीन और तर्जुमे शाए होना शुरू हुए जिसने अदबी दुनिया को अपनी जानिब आकर्षित कर लिया। यह वह ज़माना था जब तरक़्क़ी-पसंद अदबी तहरीक का ज़ोर टूट रहा था। तरक़्क़ी-पसंद अदीबों ने फ़ारूक़ी साहब को जदीदियत और अदब बराए अदब का अलम-बरदार समझ कर उन्हें अपना हरीफ़ समझना शुरू किया मगर फ़ारूक़ी साहब अपने महाज़ पर डटे रहे। उनकी इल्मियत और वुस्अत-ए-मुताला हैरान-कुन थी, तज्ज़िया-कारी और तरकीब-कारी के औसाफ़ ने उनकी तन्क़ीद में इस्तिदलाल का एक मुन्फ़रिद अंदाज़ पैदा कर दिया था जिससे उनके हरीफ़ भी मुतअस्सिर हुए।

जून 1966 में शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी ने एक अदबी रिसाले “शब-ख़ून” की बुनियाद रखी। गो इस रिसाले पर उनका नाम बतौर-ए-मुदीर शाए नहीं होता था लेकिन पूरी अदबी दुनिया को इल्म था कि इस रिसाले के रूह-ओ-रवाँ कौन हैं। “शब-ख़ून” के पहले शुमारे पर मुदीर की हैसियत से डाॅक्टर सय्यद एजाज़ हुसैन का, नायब मुदीर जाफ़र रज़ा और मुरत्तिब-ओ-मुंतज़िम की हैसियत से शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी की पत्नी जमीला फ़ारूक़ी का नाम शाए किया गया था। “शब-ख़ून” को जदीदियत का पेश-रौ क़रार दिया गया और उसने उर्दू क़लमकारों की दो नस्लों की तर्बियत की। “शब-ख़ून” 39 बरस तक पाबंदी के साथ शाए होता रहा। जून 2005 में “शब-ख़ून” का आख़िरी शुमारा दो जिल्दों में शाए हुआ जिसमें शब-ख़ून के गुज़श्ता शुमारों की बेहतरीन तख़लीक़ात शामिल की गई थीं।
शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी के तन्क़ीदी मज़ामीन के मुतअद्दिद मजमूए शाए हुए जिनमें ‘नए नाम’, ‘लफ़्ज़-ओ-मानी’, ‘फ़ारूक़ी के तब्सरे’, ‘शेर, ग़ैर-ए-शेर और नस्र’, ‘उरूज़, आहंग और बयान’, ‘तन्क़ीदी अफ़्क़ार’, ‘इस्बात-ओ-नफ़ी’, ‘अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू क्या है’, ‘ग़ालिब पर चार तहरीरें’, ‘उर्दू ग़ज़ल के अहम मोड़’, ‘ख़ुर्शीद का सामान-ए-सफ़र’, ‘हमारे लिए मंटो साहब’, ‘उर्दू का इब्तिदाई ज़माना’ और ‘ताबीर की शरह’ के नाम सर-ए-फ़ेहरिस्त हैं, ताहम तन्क़ीद के मैदान में उनका सबसे मार्कतुल-आरा काम “शेर-ए-शोर-अंगेज़” को समझा जाता है। चार जिल्दों पर मुश्तमिल इस किताब में मीर तक़ी मीर की तफ़हीम जिस अंदाज़ से की गई है उसकी कोई मिसाल उर्दू अदब में नहीं मिलती। इस किताब पर उन्हें 1996 में सरस्वती सम्मान अदबी एवार्ड भी मिला। फ़ारूक़ी साहब ने अरस्तू की पोएटिक्स (बोतीक़ा) का भी अज़-सर-ए-नौ तर्जुमा किया और इसका बहुत शानदार मुक़द्दमा तहरीर किया।

1980 के लगभग शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी कुछ अर्से के लिए तरक़्क़ी उर्दू ब्यूरो से वाबस्ता हुए, इस वाबस्तगी ने इस इदारे में नई रूह फूँक दी। उनके दौर-ए-वाबस्तगी में इस इदारे ने न सिर्फ़ ये कि उर्दू के क्लासिकी अदब और लुग़ात को अज़-सर-ए-नौ शाए किया बल्कि कई नई किताबें भी शाए कीं। इस इदारे का एक जरीदा भी ‘उर्दू दुनिया’ के नाम से शाए होना शुरू हुआ जिसने उर्दू की किताबी दुनिया को आपस में मरबूत कर दिया।
फ़ारूक़ी साहब की शाइरी का सिलसिला भी जारी रहा, उनके कई मजमूए शाए हुए जिनमें ‘गंज-ए-सोख़्ता’, ‘सब्ज़ अंदर सब्ज़’, ‘चार सम्त का दरिया’ और ‘आसमाँ मेहराब’ के नाम शामिल थे। उनकी तमाम शाइरी की कुल्लियात भी “मज्लिस-ए-आफ़ाक़ में परवाना-साँ” के नाम से शाए हो चुकी है। फ़ारूक़ी साहब को लुग़त-नवीसी से भी बहुत दिलचस्पी थी, इस मैदान में उनकी दिलचस्पी का मज़हर ‘लुग़ात-ए-रोज़मर्रा’ है जिसके कई एडीशन्ज़ शाए हो चुके हैं मगर फ़ारूक़ी साहब का अस्ल मैदान दास्तान और अफ़साना था जिसका अंदाज़ा उस वक़्त हुआ जब उन्होंने ‘दास्तान-ए-अमीर हमज़ा’ पर काम शुरू किया। उन्होंने ‘दास्तान-ए-अमीर हमज़ा’ की तक़रीबन पचास जिल्दें लफ़्ज़-ब-लफ़्ज़ पढ़ीं और फिर उनकी मार्कतुल-आरा किताब “साहिरी, शाही, साहब-करानी, दास्तान-ए-अमीर हमज़ा का मुताला” के उन्वान से मंज़र-ए-आम पर आई। 1990 की दहाई में फ़ारूक़ी साहब ने फ़र्ज़ी नामों से यके बाद दीगरे चंद अफ़साने तहरीर किए जिन्हें बेहद मक़बूलियत हासिल हुई। यह अफ़साने “शब-ख़ून” के अलावा पाकिस्तानी जरीदे ‘आज’ में भी शाए हुए। बाद अज़ाँ इन अफ़सानों का मजमूआ “सवार और दूसरे अफ़साने” के उन्वान से शाए हुआ तब लोगों ने जाना कि ये अफ़साने फ़ारूक़ी साहब के लिखे हुए थे। “सवार और दूसरे अफ़साने” ने फ़ारूक़ी साहब को माइल किया कि वह हिन्दुस्तान की मुग़्लिया तारीख़ के पस-ए-मंज़र में कोई नाॅवेल तहरीर करें। ये नाॅवेल “कई चाँद थे सर-ए-आसमाँ” के उन्वान से शाए हुआ। दिलचस्प बात यह है कि यह नाॅवेल 2006 में पहले पाकिस्तान से और फिर हिन्दुस्तान से शाए हुआ। इस नाॅवेल ने शाए होते ही क्लासिक का दर्जा हासिल किया। उर्दू के तमाम बड़े फ़िक्शन-निगारों, नक़्क़ादों और क़ारईन ने इसका वालिहाना इस्तिक़बाल किया जिसका अंदाज़ा इस नाॅवेल के मुतअद्दिद एडीशन्ज़ और तराजिम की इशाअत से लगाया जा सकता है। भारत के मशहूर अदाकार इरफ़ान ख़ान इस नाॅवेल को परदा-ए-सीमीं पर मुंतक़िल करने के ख़्वाहिश-मंद थे। फ़ारूक़ी साहब ने उन्हें इस बात की इजाज़त भी दे दी थी मगर अफ़सोस कि फ़ारूक़ी साहब से पहले ही इरफ़ान ख़ान भी दुनिया से रुख़्सत हो गए।

शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी को 2009 में हुकूमत-ए-हिन्द ने ‘पद्मश्री’ के एज़ाज़ से सरफ़राज़ किया जबकि 2010 में हुकूमत-ए-पाकिस्तान ने उन्हें ‘सितारा-ए-इम्तियाज़’ अता किया। शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी को अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी ने डी.लिट. की एज़ाज़ी डिग्री भी तफ़वीज़ की थी जबकि उन्हें उनकी किताब “तन्क़ीदी अफ़्क़ार” पर साहित्य अकादमी का एवार्ड भी अता किया गया था।
नोटः यह तहरीर मशहूर मुहक़्क़िक़ अक़ील अब्बास जाफ़री की है जिसे उन्होंने फ़ारूक़ी साहब की वफ़ात पर लिखा था।

.....और पढ़िए
For any query/comment related to this ebook, please contact us at haidar.ali@rekhta.org

लेखक की अन्य पुस्तकें

लेखक की अन्य पुस्तकें यहाँ पढ़ें।

पूरा देखिए

लोकप्रिय और ट्रेंडिंग

सबसे लोकप्रिय और ट्रेंडिंग उर्दू पुस्तकों का पता लगाएँ।

पूरा देखिए
बोलिए