aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
اختر شیرانی کی شاعری شباب ، اس کے رومان اور اس کے حسین خوابوں اور دلکش یادوں کی شاعری ہے۔ ان کا کلام پڑھ کر یہ تاثر پیداہوتا ہے کہ عورت اس کا حسن اور اس کی محبت ہی کانام اس کے نزدیک زندگی ہے۔ اختر شیرانی کی جنت یوں تو سلمیٰ ، یا ریحانہ یا عذرا کی آغوش میں ہے لیکن اس جنت کی تعمیر میں فطرت کا حسن و جمال بھی بڑا اہم عنصر ہے یوں بھی فطرت کی آغوش میں انہیں بڑا سکون ملتا ہے۔ فطرت اور اس کے مناظر و مظاہر کے ساتھ ان کارشتہ محض عشق و شباب ہی کے حوالے سے قائم نہیں ہوتا بلکہ فطرت کی رعنائی اور اس کے مظہراتی حسن و جمال کا ان کی شاعری میں اپنا ایک مقام ہے۔ ان کی شاعری میں جادو کی تاثیر ہے جس میں والہانہ عشق کا اظہار کثرت سے ملتا ہے۔ زیر نظر کتاب میں ان کے آٹھ مجموعوں کے انتخاب کو شامل کیا گیا ہے ۔ ان میں پہلا مجموعہ صبح بہار، دوسرا مجموعہ اختر ستان، تیسرا مجموعہ لالہ طور، چوتھا مجموعہ طیور آوارہ ، پانچواں نغمہ حرم ، چھٹا شہناز، اور آخری مجموعہ کلام شہرود شامل ہے۔ یہ آخری مجموعہ ان کی وفات کے بعد لاہور سے شائع ہوا تھا۔ اس مجموعے میں نعت ، عید کا چاند جیسے موضوعات پر کلام پیش کیا گیا ہے۔ تعارف میں ان کی شخصیت کا مکمل خاکہ کھینچا گیا ہے۔ کتاب کا مطالعہ کرنے کے بعد ان کی فنی شخصیت پورے طور پر کھل کر سامنے آجاتی ہے۔
कुछ अदीब-ओ-शायर ऐसे होते हैं जिनके लिए वक़्त और ज़माना साज़गार होता है और जो अपने ज़माने में और उसके बाद भी वो मर्तबा हासिल कर लेते हैं जिसके दरअसल वो हक़दार नहीं होते, दूसरी तरफ़ कुछ ऐसे अदीब-ओ-शायर होते हैं जो ग़लत वक़्त पर पैदा होते हैं ग़लत ढंग से जीते हैं और ग़लत वक़्त पर मर जाते हैं और उनको वो मर्तबा नहीं मिल पाता जिसके वो हक़दार होते हैं। अख़तर शीरानी का सम्बंध इसी समूह से है। उनका पहला दोष ये था कि उनकी नज़्मों में सलमा, अज़्रा और रेहाना के नाम बार बार आते हैं और उनका दूसरा क़सूर ये था कि वो प्रगतिशील नहीं थे जबकि उनके ज़माने में, और उसके बाद भी लम्बे समय तक सृजन व आलोचना पर प्रगतिवादियों का वर्चस्व रहा। लिहाज़ा ज़माने ने बड़ी उदारता से प्रमाण देते हुए उनको रूमान का शायर की सनद देकर उनका आमाल-नामा बंद कर दिया। अख़तर शीरानी ने सिर्फ़ 43 बरस की उम्र पाई और इस उम्र में उन्होंने नज़्म-ओ-नस्र में इतना कुछ लिखा कि बहुत कम लोग अपनी लम्बी उम्र में इतना लिख पाते हैं। उर्दू आलोचना पर अख़तर शीरानी का जो क़र्ज़ है वो उसे अभी तक पूरी तरह अदा नहीं कर पाई है।
अख़तर शीरानी का असल नाम दाऊद ख़ां था। वो 4 मई 1905 ई. को हिन्दोस्तान की पूर्व रियासत टोंक में पैदा हुए। वो प्रतिष्ठित विद्वान और शोधक हाफ़िज़ महमूद शीरानी के इकलौते बेटे थे। लिहाज़ा धार्मिक शिक्षा के लिए योग्य हाफ़िज़ और संरक्षक नियुक्त किए गए और प्रचलित शिक्षा से परिचित कराने के लिए बाप ने ख़ुद उस्ताद की ज़िम्मेदारी निभाई और साबिर अली शाकिर की सेवाएं भी प्राप्त कीं। यही नहीं बेटे की शारीरिक विकास के लिए पहलवान अब्दुल क़य्यूम ख़ान को मुलाज़िम रखा। दाऊद ख़ां ने कुश्ती और पहलवानी के साथ साथ लकड़ी चलाने का हुनर भी सीखा। हाफ़िज़ महमूद शीरानी बेटे को अपनी ही तरह आलिम, फ़ाज़िल और शोधकर्ता बनाना चाहते थे। लेकिन क़ुदरत ने उन्हें किसी दूसरे ही काम के लिए पैदा किया था। मिज़ाज लड़कपन से ही आशिक़ाना था। उन्होंने कम उम्र से ही शायरी शुरू कर दी थी और चोरी छुपे साबिर अली शाकिर से अपनी शायरी पर मश्वरा लिया करते थे। जिस वक़्त अख़तर शीरानी की उम्र तक़रीबन 16 साल थी नवाब टोंक के ख़िलाफ़ एक फ़साद खड़ा हो गया जिसके नतीजे में नवाब ने बहुत से लोगों को रियासत बदर किया, उन ही में नाकर्दा गुनाह हाफ़िज़ महमूद शीरानी थे। वो मजबूरन लाहौर चले गए जहां अख़तर शीरानी ने अपनी शिक्षा जारी रखते हुए ओरीएंटल कॉलेज से मुंशी फ़ाज़िल और अदीब फ़ाज़िल के इम्तिहानात पास किए और साथ ही शायरी में अल्लामा ताजवर नजीब आबादी की शागिर्दी इख़्तियार कर ली। तालीम से फ़ारिग़ हो कर वो पत्रकारिता के चक्कर में पड़ गए और एक के बाद एक कई रिसाले निकाले। मुलाज़मत उन्होंने कभी नहीं की। उनकी तमाम शाह ख़र्चीयाँ बाप के ज़िम्मे थीं। लाहौर प्रवास के शुरू के ज़माने में ही अख़तर शीरानी पर इश्क़ ने हमला किया। शायरी ही क्या कम थी वो शराब भी पीने लगे। इन ख़बरों से हाफ़िज़ महमूद शीरानी को बहुत दुख पहुंचा। उन्होंने उनके ख़र्चे तो बंद नहीं किए लेकिन हुक्म दिया कि वो कभी उनके सामने न आएं। 1946 ई. में बाप की मौत के बाद तमाम ज़िम्मेदारियाँ अख़तर के सर पर आ गईं जिनका उन्हें कोई तजुर्बा नहीं था। अब उनकी शराबनोशी हद दर्जा बढ़ गई। फिर 1947 ई. में देश विभाजन ने उनके लिए और परेशानियाँ पैदा कर दीं। वो लाहौर अपने देरीना और मुख़लिस दोस्त नय्यर वास्ती के पास चले गए। तब तक मदिरापान की अधिकता ने उनके जिगर और फेफड़ों को तबाह कर दिया था। 9 सितंबर 1948 ई. को ऐसी हालत में उनकी मौत हुई कि कोई अपना उनके पास नहीं था।
अख़तर शीरानी की साहित्यिक सेवाओँ को देखते हुए उनके साहित्य दर्शन को ध्यान में रखना ज़रूरी है। इसको उनके ही शब्दों में सुन लीजिए, “मैंने जब शे’र कहना शुरू किया तो शायरी के लाभ पहुँचानेवाली अवधारणा की वो कल्पना कहीं मौजूद न थी जिसे प्रगतिशीलता के नाम से याद किया जाता है। मेरे देखते ही देखते इस कल्पना ने काफ़ी प्रचार पा लिया, शायर का काम ज़िंदगी के हुस्न को देखना और दूसरों को दिखाना है। ज़िंदगी के नासूरों के ईलाज की कोशिश उसका काम नहीं। मेरे नज़दीक शायर के लिए अपने आपको किसी सियासी या आर्थिक व्यवस्था से सम्बद्ध करना ज़रूरी नहीं। शायर की क़द्रें सबसे अलग और आज़ाद हैं।” नतीजा ये था कि अख़तर ने सलमा को ज़िंदगी के हुस्न का रूपक बना कर इश्क़ के गीत गाए। वो सलमा जो एक जीती-जागती हस्ती भी थी और हुस्न का रूपक भी। लेकिन अख़तर शीरानी को महज़ हुस्न(चाहे आप उसे नारीवादी सौंदर्य तक सीमित न रखें) और इश्क़ का शायर क़रार देना उनके साथ अन्याय है। हालाँकि ये भी सच है कि अख़तर ने उर्दू शायरी को जिस तरह औरत के किरदार से परिचय कराया, उनसे पहले किसी ने नहीं कराया था। उनकी महबूबा उर्दू शायरी के सितम पेशा,हाथ में ख़ंजर लिये प्रेमिका के बजाय संजीदगी, गरिमा, सौंदर्य और समर्पण की एक जीती जागती प्रतिमा है जो उर्दू शायरी में औरत के रिवायती किरदार से बिल्कुल भिन्न है। बहरहाल उनकी शख़्सियत की कई परतें थीं। उनमें एक नुमायां पहलवान की देशभक्ति है। वो मुल्क को आज़ाद देखना चाहते थे और ये आज़ादी उनको भीख में दरकार नहीं थी।
“इश्क़-ओ-आज़ादी बहार-ए-ज़ीस्त का सामान है
इश्क़ मेरी जान आज़ादी मिरा ईमान है”
और
“इश्क़ पर कर दूं फ़िदा में अपनी सारी ज़िंदगी
लेकिन आज़ादी पे मेरा इश्क़ भी क़ुर्बान है”
या
“सर कटा कर सर-ओ-सामान वतन होना है
नौजवानो हमें क़ुर्बान-ए-वतन होना है”
उनका पहला काव्य संग्रह “फूलों के गीत” बच्चों के साहित्य में एक मील का पत्थर है। दूसरे शायरों ने भी नाम मात्र को बच्चों के लिए शायरी की जो आम तौर पर या तो तर्जुमा या मशहूर तथ्यों पर आधारित हैं। इक पूरा संग्रह जो बड़ी हद तक प्रकाशित है, अख़तर का बड़ा कारनामा है। दूसरे संग्रह “नग़मा-ए-हरम” में भी औरतों और बच्चों के लिए नज़्में हैं। अख़तर शीरानी ने विन्यास में भी मूल्यवान प्रयोग किए। उन्होंने पंजाबी से माहिया, हिन्दी से गीत और अंग्रेज़ी से सॉनेट को अपनी शायरी में अधिकांश प्रयोग किए और ये कहना ग़लत न होगा कि उर्दू में बाक़ायदा सॉनेट लिखने की शुरुआत अख़तर शीरानी ने की। नस्र में भी अख़तर शीरानी के कारनामे कम नहीं। उन्होंने कई पत्रिकाएं निकलीं। 1925 ई. में जब अख़तर शीरानी की उम्र सिर्फ़ 20 बरस थी, उन्होंने लाहौर हाईकोर्ट के मौलवी ग़ुलाम रसूल की पत्रिका का संपादन किया। अल्लामा ताजवर नजीब आबादी के कहने पर पण्डित रतन नाथ सरशार के “फ़साना-ए-आज़ाद” का संक्षेप और सरलीकरण बच्चों के लिए किया। इसी तरह डाक्टर अब्दुलहक़ के कहने पर सदीद उद्दीन मुहम्मद ओफ़ी की “जवामे-उल-हकायात” व “लवामा-उल-रवायात” को बड़ी मेहनत और शोधपरक लगन के साथ उर्दू का जामा पहनाया। उन्होंने तुर्की के मुशहूर नाटककार सामी बे के ड्रामे “कावे” को “ज़ह्हाक” के नाम से उर्दू जामा पहनाया। उन्होंने “धड़कते दिल” के नाम से अफ़सानों का एक संग्रह प्रकाशित किया जिसमें 12 अफ़साने दूसरी ज़बानों के अफ़सानों का तर्जुमा और बाक़ी मूल हैं। “अख़तर और सलमा के ख़ुतूत” जिसके कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं, ख़ूबसूरत नस्र का लाजवाब नमूना है। “आईना ख़ाने” में उनके पाँच अफ़सानों का संग्रह है जो कथित रूप से एक ही रात में लिखे गए थे। ये अफ़साने फ़िल्मी अदाकाराओं की आपबीतियों की शक्ल में हैं जिनमें औरत के शोषण की कहानी है। अख़तर शीरानी बहुत से अख़बारों व पत्रिकाओं के लिए इब्न-ए-बतूता, ईं जहानी, बालम, राजकुमारी बकावली, ज़बूर, ज़ाहिक, अक्कास, लार्ड बाइरन ऑफ़ राजस्थान, मसऊद ख़ुसरो शीरानी, मुल्ला फुर्क़ान वग़ैरा फ़र्ज़ी नामों से कालम लिखते थे। गद्यलेखक के रूप में उनका स्थान व श्रेणी का निर्धारण अभी तक उपेक्षित है। अख़तर शीरानी को महान शायर या अदीब कहना अतिश्योक्ति होगी लेकिन इसमें ज़रा भी संदेह की गुंजाइश नहीं कि उर्दू साहित्य का लघु से लघु इतिहास भी उनके उल्लेख के बग़ैर अधूरा रहेगा।
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